सोमवार, 11 जुलाई 2016

1824 की क्रान्ति जिसे इतिहास ने भूला दिया


वीर गुर्जर - क्षत्रिय इतिहास
  1824 की क्रान्ति जिसे इतिहास ने भूला दिया* :
(1981 मे बनी क्रान्ति फिल्म '1824 के गुर्जर विद्रोह' पर आधारित थी)
1757 ई0 में प्लासी के युद्व के फलस्वरूप भारत में अग्रेंजी राज्य की स्थापना के साथ ही भारत में उसका विरोध प्रारम्भ हो गया, और 1857 की क्रान्ति तक भारत में अनेक संघर्ष हुए, जिस प्रकार 10 मई सन् 1857 में क्रान्ति कोतवाल धनसिंह गुर्जर द्वारा शुरू हुई थी जिसको भारत का प्रथम स्वतंत्रता सग्राम, भारतीय विद्रोह , गुर्जर विद्रोह और सैनिक विद्रोह का नाम दिया गया और बाद में जन विद्रोह में परिवर्तित हो गयी थी। इसी प्रकार की एक घटना क्रम सन् 1824 में घटित हुई । कुछ इतिहासकारों ने इन घटनाओं के साम्य के आधार पर सन 1824 की क्रान्ति को सन 1857 के स्वतंत्रता संग्राम का अग्रगामी और पुर्वाभ्यास भी कहा है। सन् 1824 में सहारपुर-हरिद्वार क्षेत्र मे स्वतन्त्रता-संग्राम की ज्वाला उपरोक्त अन्य स्थानों की तुलना में अधिक तीव्र थी। आधुनिक हरिद्वार जनपद में रूडकी शहर के पूर्व में लंढौरा नाम का एक कस्बा है यह कस्बा सन् 1947 तक पंवार गुर्जर वंश के राजाओं की राजधानी रहा है। अपने चरमोत्कर्ष में लंढौरा रियासत में 804 गाँव थे और यहां के शासको का प्रभाव समूचे पश्चिम उत्तर प्रदेश में था। हरियाणा के करनाल क्षेत्र और गढ़वाल में भी इस वंश के शासकों का व्यापक प्रभाव था। सन् 1803 में अंग्रेजो ने ग्वालियर के सिन्धियाओं को परास्त कर समस्त उत्तर प्रदेश को उनसे युद्व हजीने के रूप में प्राप्त कर लिया। अब इस क्षेत्र में विधमान पंवार गुर्जर वंश की लंढौरा, नागर गुर्जर वंश की बहसूमा (मेरठ), भाटी गुर्जर वंश की दादरी (गौतम बुद्व नगर), जाटो की कुचेसर (गढ क्षेत्र) इत्यादि सभी ताकतवर रियासते अंग्रेजो की आँखों में कांटे की तरह चुभने लगी। सन् 1813 में लंढौरा के राजा रामदयाल सिंह गुर्जर की मृत्यू हो गयी। उनके उत्तराधिकारी के प्रश्न पर राज परिवार में गहरे मतभेद उत्पन्न हो गये। स्थिति का लाभ उठाते हुये अंग्रेजी सरकार ने रिायसत कोभिन्न दावेदारों में बांट दिया और रियासत के बडे हिस्से को अपने राज्य में मिला लिया। लंढौरा रियासत का ही ताल्लुका था, कुंजा-बहादरपुर, जोकि सहारनपुर-रूडकी मार्ग पर भगवानपुर के निकट स्थित है, इस ताल्लुके मे 44 गाँव थे सन् 1819 में विजय सिंह गुर्जर यहां के ताल्लुकेदार बने। विजय सिंह लंढौरा राज परिवार के निकट सम्बन्धी थे। विजय सिंह गुर्जर के मन में अंग्रेजो की साम्राज्यवादी नीतियों के विरूद्व भयंकर आक्रोश था। वह लंढौरा रियासत के विभाजन को कभी भी मन से स्वीकार न कर सके थे। दूसरी ओर इस क्षेत्र में शासन के वित्तीय कुप्रबन्ध और कई वर्षों के अनवरत सूखे ने स्थिति को किसानों के लिए अति विषम बना दिया, बढते राजस्व और अंग्रेजों के अत्याचार ने उन्हें विद्रोह करने के लिए मजबूर कर दिया। क्षेत्र के किसान अंग्रेजों की शोषणकारी कठोर राजस्व नीति से त्रस्त थे और संघर्ष करने के लिए तैयार थे। किसानों के बीच में बहुत से क्रान्तिकारी संगठन जन्म ले चुके थे। जो ब्रिटिश शासन के विरूद्व कार्यरत थे। ये संगठन सैन्य पद्वति पर आधारित फौजी दस्तों के समान थे, इनके सदसय भालों और तलवारों से सुसज्जित रहते थे, तथा आवश्यकता पडने पर किसी भी छोटी-मोटी सेना का मुकाबला कर सकते थे। अत्याचारी विदेशी शासन अपने विरूद्व उठ खडे होने वाले इन सैनिक ढंग के क्रान्तिकारी संगठनों को डकैतो का गिरोह कहते थे। लेकिन अंग्रेजी राज्य से त्रस्त जनता का भरपूर समर्थन इन संगठनों केा प्राप्त होता रहा। इन संगठनों में एक क्रान्तिकारी संगठन का प्रमुख नेता कल्याण सिंह गुर्जर उर्फ कलुआ गुर्जर था। यह संगठन देहरादून क्षेत्र में सक्रिय था, और यहां उसने अंग्रेजी राज्य की चूले हिला रखी थी दूसरे संगठन के प्रमुख कुँवर गुर्जर और भूरे गुर्जर थें। यह संगठन सहारनपुर क्षेत्र में सक्रिय था और अंग्रेजों के लिए सिरदर्द बना हुआ था। सहारनपुर-हरिद्वार-देहरादून क्षेत्र इस प्रकार से बारूद का ढेर बन चुका था। जहां कभी भी ब्रिटिश विरोधी विस्फोट हो सकता था। कुंजा-बहादरपुर के ताल्लुकेदार विजय सिंह स्थिति पर नजर रखे हुए थें। विजय सिंह के अपनी तरफ से पहल कर पश्चिम उत्तर प्रदेश के सभी अंग्रेज विरोधी जमीदारों, ताल्लुकेदारों, मुखियाओं, क्रान्तिकारी संगठनों से सम्पर्क स्थापित किया और एक सशस्त्र क्रान्ति के माध्यम से अंग्रेजों को खदेड देने की योजना उनके समक्ष रखी। विजय सिंह के आवहान पर ब्रिटिश किसानों की एक आम सभा भगवानपुर जिला-सहारनपुर में बुलायी गयी। सभा में सहारनपुर हरिद्वार, देहरादून-मुरादाबाद, मेरठ और यमुना पार हरियाणा के किसानों ने भाग लिया। सभा में उपस्थित सभी किसानों ने हर्षोउल्लास से विजय सिंह की क्रान्तिकारी योजना को स्वीकारकर लिया। सभा ने विजय सिंह को भावी मुक्ति संग्राम का नेतृत्व सभालने का आग्रह किया, जिसे उन्हौने सहर्ष स्वीकार कर लिया। समाज के मुखियाओं ने विजय सिंह को भावी स्वतन्तत्रा संग्राम में पूरी सहायता प्रदान करने का आश्वासन दिया। कल्याण सिंह उर्फ कलुआ गुर्जर ने भी विजय सिंह का नेतृत्व स्वीकार कर लिया। अब विजय सिंह अंग्रेजों से दो-दो हाथ करने के लिए किसी अच्छे अवसर की ताक में थे। सन् 1824 में बर्मा के युद्व में अंग्रेजो की हार के समाचार ने स्वतन्त्रता प्रेमी विजय सिंह के मन में उत्साह पैदा कर दिया। तभी बैरकपुर में भारतीय सेना ने अंग्रेजी सरकार के विरूद्व विद्रोह कर दिया। समय को अपने अनुकूल समझ विजयसिंह की योजनानुसार क्षेत्री किसानों ने स्वतन्त्रता की घोषणा कर दी। स्वतन्त्रता संग्राम के आरम्भिक दौर में कल्याण सिंह गुर्जर अपने सैन्य दस्ते के साथ शिवालिक की पहाडियों में सक्रिय रहा और देहरादून क्षेत्र में उसने अच्छा प्रभाव स्थापित कर लिया। नवादा गाँव के शेखजमां और सैयाजमां अंग्रेजो के खास मुखबिर थे, और क्रान्तिकारियों की गतिविधियों की गुप्त सूचना अंग्रेजो को देते रहते थे। कल्याणसिंह गुर्जर ने नवादा गाँव पर आक्रमण कर इन गददारों को उचित दण्ड प्रदान किया, और उनकी सम्पत्ति जब्त कर ली। नवादा ग्राम की इस घटना से सहायक मजिस्ट्रेट शोर के लिये चेतावनी का कार्य किया और उसे अंग्रेजी राज्य के विरूद्व एक पूर्ण सशस्त्र क्रान्ति के लक्षण दिखाई पडने लगें। 30 मई 1824 को कल्याण सिंह ने रायपुर ग्राम पर आक्रमण कर दिया और रायपुर में अंग्रेज परस्त गददारों को गिरफ्तार कर देहरादून ले गया तथा देहरादून के जिला मुख्यालय के निकट उन्हें कडी सजा दी। कल्याण सिंह के इस चुनौती पूर्ण व्यवहार से सहायक मजिस्ट्रेट शोर बुरी तरह बौखला गया स्थिति की गम्भीरता को देखते हुये उसने सिरमोर बटालियन बुला ली। कल्याण सिंह के फौजी दस्ते की ताकत सिरमौर बटालियन से काफी कम थी अतः कल्याण सिंह ने देहरादून क्षेत्र छोड दिया, और उसके स्थान पर सहारनपुर, ज्वालापुर और करतापुर को अपनी क्रान्तिकारी गतिविधियों का केन्द्र बनाया। 7 सितम्बर सन 1824 को करतापुर पुलिस चैकी को नष्ट कर हथियार जब्त कर लियो। पांच दिन पश्चात उसने भगवानपुर पर आक्रमण कर उसे जीत लिया। सहारनपुर के ज्वाइन्ट मजिस्ट्रेट ग्रिन्डल ने घटना की जांच के आदेश कर दिये। जांच में क्रान्तिकारी गतिविधियों के कुंजा के किले से संचालित होने का तथ्य प्रकाश में आया। अब ग्रिन्डल ने विजय सिंह के नाम सम्मन जारी कर दिया, जिस पर विजयसिंह ने ध्यान नहीं दिया। और निर्णायक युद्व की तैयारी आरम्भ कर दी। एक अक्टूबर सन् 1824 को आधुनिक शस्त्रों से सुसज्जित 200 पुलिस रक्षकों की कडी सुरक्षा में सरकारी खजाना ज्वालापुर से सहारनपुर जा रहा था। कल्याण सिंह के नेतृत्व में क्रान्तिकारियों ने काला हाथा नामक स्थान पर इस पुलिस दल पर हमला कर दिया। युद्व में अंग्रेजी पुलिस बुरी तरह परास्त हुई और खजाना छोड कर भाग गयी। अब विजय सिंह और कल्याण सिंह ने एक स्वदेशी राज्य की घोषणा कर दी और अपने नये राज्य को स्थिर करने के लिए अनेक फरमान जारी किये। रायपुर सहित बहुत से गाँवो ने राजस्व देना स्वीकार कर लिया चारो ओर आजादी की हवा चलने लगी और अंग्रेजी राज्य इस क्षेत्र से सिमटता प्रतीत होने लगा। कल्याण सिंह ने स्वतन्त्रता संग्राम को नवीन शक्ति प्रदान करने के उददेश्य से सहारनपुर जेल में बन्द स्वतन्त्रता सेनानियों को जेल तोडकर मुक्त करने की योजना बनायी। उसने सहारनपुर शहर पर भी हमला कर उसे अंग्रेजी राज से आजाद कराने का फैसला किया। क्रान्तिकारियों की इस कार्य योजना से अंग्रेजी प्रशासन चिन्तित हो उठा, और बाहर से भारी सेना बुला ली गयी। कैप्टन यंग को ब्रिटिश सेना की कमान सौपी गयी। अंग्रेजी सेना शीघ्र ही कुंजा के निकट सिकन्दरपुर पहुँच गयी। राजा विजय सिंह ने किले के भीतर और कल्याण सिंह ने किले के बाहर मोर्चा सम्भाला। किले में भारतीयों के पास दो तोपे थी। कैप्टन यंग के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना जिसमें मुख्यतः गोरखे थे, कुंजा के काफी निकट आ चुकी थी। 03 अक्टूबर को ब्रिटिश सेना ने अचानक हमला कर स्वतन्तत्रा सेनानियों को चैका दिया। भारतीयों ने स्थिति पर नियन्त्रण पाते हुए जमीन पर लेटकर मोर्चा सम्भाल लिये और जवाबी कार्यवाही शुरू कर दी। भयंकर युद्व छिड गया, दुर्भाग्यवंश इस संघर्ष में लडने वाले स्वतन्त्रता सेनानियों का सबसे बहादुर योदा कल्याण सिंह अंग्रेजों के इस पहले ही हमले मे शहीद हो गया पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कुंजा में लडे जा रहे स्वतन्त्रता संग्राम का समाचार जंगल की आग के समान तीव्र गति से फैल गया, मेरठ की बहसूमा और दादरी रियासत के राजा भी अपनी सेनाओं के साथ गुप्त रूप से कुंजा के लिए कूच कर गये। बागपत और मुंजफ्फरनगर के आस-पास बसे चौहान गोत्र के गुर्जर के कल्सियान किसान भी भारी मात्रा में इस स्वतन्त्रता संग्राम में राजा विजययसिंह की मदद के लिये निकल पडे। अंग्रेजो को जब इस हलचल का पता लगा तो उनके पैरों के नीचे की जमीन निकल गयी। उन्हौनें बडी चालाकी से कार्य किया और कल्याण सिंह के मारे जाने का समाचार पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में फैला दिया। साथ ही कुंजा के किले के पतन और स्वतन्त्रता सैनानियों की हार की झूठी अफवाह भी उडा दी। अंग्रेजों की चाल सफल रही। अफवाहों से प्रभावित होकर अन्य क्षेत्रों से आने वाले स्वतन्त्रता सेनानी हतोत्साहित हो गये, और निराश होकर अपने क्षेत्रों को लौट गये। अंग्रेजों ने एक रैम को सुधार कर तोप का काम लिया। और बमबारी प्रारम्भ कर दी। अंग्रेजो ने तोप से किले को उडाने का प्रयास किया। किले की दीवार कच्ची मिटटी की बनी थी जिस पर तोप के गोले विशेष प्रभाव न डाल सकें। परन्तु अन्त में तोप से किले के दरवाजे को तोड दिया गया। अब अंग्रेजों की गोरखा सेना किले में घुसने में सफल हो गयी। दोनो ओर से भीषण युद्व हुआ। सहायक मजिस्ट्रेट मि0 शोर युद्व में बुरी तरह से घायल हो गया। परन्तु विजय श्री अन्ततः अंग्रेजों को प्राप्त हुई। राजा विजय सिंह बहादुरी से लडते हुए शहीद हो गये। भारतीयों की हार की वजह मुख्यतः आधुनिक हथियारों की कमी थी, वे अधिकांशतः तलवार, भाले बन्दूकों जैसे हथियारों से लडे। जबकि ब्रिटिश सेना के पास उस समय की आधुनिक रायफल (303 बोर) और कारबाइने थी। इस पर भी भारतीय बडी बहादुरी से लडे, और उन्हौनें आखिरी सांस तक अंग्रेजो का मुकाबला किया। ब्रिटिश सरकार के आकडों के अनुसार 152 स्वतन्त्रता सेनानी शहीद हुए, 129 जख्मी हुए और 40 गिरफ्तार किये गये। लेकिन वास्तविकता में शहीदों की संख्या काफी अधिक थी। भारतीय क्रान्तिकारियों की शहादत से भी अंग्रेजी सेना का दिल नहीं भरा। ओर युद्व के बाद उन्हौने कुंजा के किले की दिवारों को भी गिरा दिया। ब्रिटिश सेना विजय उत्सव मनाती हुई देहरादून पहुँची, वह अपने साथ क्रान्तिकारियों की दो तोपें, कल्याण सिंह काा सिंर ओर विजय सिंह का वक्षस्थल भी ले गयें। ये तोपे देहरादून के परेडस्थल पर रख दी गयी। भारतीयों को आंतकित करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने राजा विजय सिंह का वक्षस्थल और कल्याणसिंह का सिर एक लोहे के पिजरे में रखकर देहरादून जेल के फाटक पर लटका दिया। कल्याण सिंह के युद्व की प्रारम्भिक अवस्था में ही शहादत के कारण क्रान्ति अपने शैशव काल में ही समाप्त हो गयी। कैप्टन यंग ने कुंजा के युद्व के बाद स्वीकार किया था कि यदि इस विद्रोह को तीव्र गति से न दबवाया गया होता, तो दो दिन के समय में ही इस युद्व को हजारों अन्य लोगों का समर्थन प्राप्त हो जाता। और यह विद्रोह समस्त पश्चिम उत्तर प्रदेश में फैल जाता
https://indianrevolt1857.blogspot.in/…/1857-1824-rehearsal-…

गुरुवार, 7 जुलाई 2016

DNT वर्ग अपने हक प्राप्त करे


 दोस्तों क्या आप विमुक्त जाति Denotified Tribes के बारे में जानते हो ? देश की कुछ बहादूर जातियों ने मुगलो और अंग्रेजो के साथ टककर ली ।ओह जातियां है सांसी* छारा नट बेहड़ कूट ओड. वडार *बावरिया *वागरी महातम* मागता* मल्लाह खेवट सिकलीगर* शोरगिर* बंजारा* भाट भोपा **बहेलिया*अहेरिया गंघहिला कालबेलिया सपेरा *राजभर *कलन्दर डौम*गिहार* निषाद वागरी *गुज्जर*बेलदार *भांतु जोगी जंगम जोगी* हबुडा आदि आदि यानि193 जातियां । जिस कारण मुगलो ने इन जातियो को बागी करार दे दिया जिस से कुछ ये जातियां घुमंतु बन गई। 1600 वीं शताब्दी मै ये जातियां घुमंतू तो थी और अंग्रेजो पर छुप कर वॉर करती थी। 1857 के ग़दर में हमारी जातियों ने बढ़ चढ़ कर भाग लिया जिस से अंग्रेज सरकार डर गई । जिस कारण अंग्रेजो ने 1871 इन जातियों पर जरैयाम पेशा ( क्रिमिनल ट्राइब ऐक्ट 1871) लगा दिया । जो आज कल बहुत खतरनाक आतंकियो पर Tata or Pota ,misa एक्ट लगाया जाता है उस से भी अधिक कठोर था । इन जातियों के लोगों को कंही भी आने जाने की इजाजत नही थी । दिन में 4 बार हाजरी होती थी । एक पास मिलता था जिस को लेकर अपनी रिस्तेदारी में आया जाया करते थे । इन जातियों को अपनी बात कहने का अधिकार भी नही था पुलिस कप्तान ने जो फ़ैसला किया वहीं आखरी फैशला होता था यानि कोर्ट में जाने की इजाजत नही थी । काले पानी की सजा भी होती थी । सरे आम गोलियों से भून दिए जाते थे । सरे आम फांसी पर चढ़ा दिया जाता था । सरे आम बस्तीयों जला दी जाती थी । इतना घोर अन्याय अंग्रेजो ने इन जातियो पर किया जिसका वर्णन करने में इंसान की जीभ असमर्थ रह जाती थी । जिस कारण इन जातियों के तरक्की के साधन बंद हो गए । देश 15 अगस्त 1947 को आजाद हो गया परन्तु ये जातियां आजाद नही हुई । देश की आजादी के 5 साल 16 दिन तक इस देश का वाशी ही नही समजा और यानि 31 अगस्त 1952 को इन जातियों को उस क्रिमिनल एक्ट से मुक्त किया गया उस दिन जातियों को विमुक्त जाति Denotifide ट्राइब की संज्ञा दी गई । दोस्तों 82 साल क्रिमिनल एक्ट लगने के कारण हम 4 चीजो से पिछड़ गए आर्थिक स्तर , शैक्षिणिक , धार्मिक ,राजनैतिक । जिस कारण ये जातियां दुनियां की तरक्की की दौड में आज भी 67 साल पीछे है। इस देश के सविधान की ड्राफ्टिंग कमेटी ने भी हमारी जातियों से बहुत भारी अन्याय किया । हमारी जातियों की अनपढ़ता और राजनैतिक अज्ञानता का इन राजनैतिक लोगों ने भरपूर फ़ायदा उठाया । हमें कंही obc / SC में डाल कर हमारे साथ खिलवाड़ किया जबकि हमें ST होना चाहिए था । जिसके माप दंड हम उस समय पुरे करते थे। जिसकी भरपाई हम सरकार से कराने के भरसक पर्यास कर रहे है ताकि हम भी तरक्की की दौड में शामिल हो सके। लेकिन ये तभी सम्भव हो सकता है जब हम सब जातियां संगठित होंगी । क्योकि अकेली जाति कुछ भी नही कर सकती । हमें सभी जातियों को जगाना पड़ेगा। देश में हमारी एक जाति की आबादी बहुत काम है और एक एकेली जाति को कुछ मिलना आज के समय में बहुत मुस्किल है अगर हम जल्द संगठित नही हुऐ तो हमारा आने वाला ' कल ' बहुत खतरनाक होगा । आज के दौर में दबंग जातियां गरीब जातिया पर हर तरफ से हावी है ओह जाहे आरक्षण में हो चाहे राजनीती में हो चाहे शिक्षा में हो चाहे आर्थिक स्तर पर हो चाहे सामाजिक स्तर पर हो । युवा दोस्तों हमें अपने समाज के उथान के लिए संघठित होना होगा । उठो जागो कुछ कर चले अपनों के लिए !
साभार-बालक राम सांसी 


22 March : International Gurjar Day



22 March : International Gurjar Day

कर्नल किरोड़ी सिंह बैसला: जिब्राल्टर की चट्टान

 कर्नल किरोड़ी सिंह बैसलाजिब्राल्टर की चट्टान

कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला का जन्म पूर्वी राजस्थान के करौली ज़िले के एक छोटे से गांव में हुआ था। वे बचपन से ही काफी कुशाग्र थे इसलिए माता-पिता ने उन्हें करोड़ों में से एक नाम दिया किरोड़ी। वे बैंसला गौत्र के गुर्जर है। बचपन में काफी कम उम्र में ही उनकी शादी हो गई थी। अपने शुरुआती दिनों में वो शिक्षक के तौर पर काम किया करते थे, लेकिन पिता के फौज में होने के कारण वे भी फौज में शामिल हो गए और सिपाही बन गए।
कर्नल बैंसला ने 1962 के भारत-चीन और 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में भी अपनी बहादुरी का जौहर दिखाया। वे राजपूताना राइफल्स में थे और पाकिस्तान के युद्धबंदी भी रहे। उनके सीनियर्स उन्हें 'जिब्राल्टर का चट्टान' कहते थे और साथी कमांडो 'इंडियन रेम्बो' कहा करते थे। उनकी बहादुरी और कुशाग्रता का ही नतीजा था कि वे सेना में एक मामूली सिपाही से तरक्की पाते हुए कर्नल के रैंक तक पहुंचे और फिर रिटायर हुए।
'सार्वजनिक जीवन में कदम'
देश की सेवा के बाद कर्नल बैंसला ने अपने जीवन में दूसरी बड़ी लड़ाई लड़ी अपने गुर्जर समुदाय के लिए। सार्वजनिक जीवन में आने के बाद उन्होंने गुर्जर आरक्षण संघर्ष समिति की अगुवाई की। गुर्जरों को सरकारी नौकरी में आरक्षण देने के लिए गुर्जर आरक्षण आन्दोलन का आगाज किया| आरक्षण के लिए उनका आंदोलन इतना तेज़ चला कि अदालत को बीच में हस्तक्षेप करना पड़ा। ऐसा माना जाता है कि आजाद भारत में सबसे संगठित और सर्वव्यापक देशव्यापी आन्दोलन  गुर्जर आंदोलन ही था।
बार-बार सड़क और रेलमार्ग जाम करने के कारण कई बार उनकी आलोचना भी हुई, उनके विरोधियों ने उनपर सिरफिरा होने और लोगों को भटकाने का भी आरोप लगाया, लेकिन बैंसला डिगे नहीं और लगातार आंदोलन करते रहे। उनके द्वारा चलाये जा रहे आंदोलन में अब तक 72 से ज्यादा लोगों की जानें जा चुकी हैं।
'वंचितों को हक़'
कर्नल बैंसला का कहना है कि राजस्थान के ही मीणा समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्जा मिला हुआ है ,जिससे उन्हें सरकारी नौकरी में अच्छा-ख़ासा प्रतिनिधित्व मिला हुआ है, जबकि उतने ही बड़े गुर्जर समुदाय को आजतक इस हक़ से वंचित रखा गया है, जो इस समुदाय की तरक्की में बाधक है। बैंसला के मुताबिक उनके जीवन में जिन दो लोगों ने अमिट छाप छोड़ी है, उनमें मुग़ल शासक बाबर और अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन हैं।
बैंसला के चार बच्चे हैं। उनकी बेटी रेवेन्यु सर्विस और दो बेटे सेना में हैं और एक बेटा निजी कंपनी में। उनकी पत्नी का निधन हो चुका है और वे अपने बेटे के साथ हिंडौन गांव में रहते हैं।

युवा अपने अधिकारों के प्रति सजग रहे- हिम्मत सिंह गुर्जर

 
दोस्तों ,राजस्थान में विशेष पिछड़ा वर्ग में 5%आरक्षण की मांग को लेकर राजस्थान गुर्जर आरक्षण संघर्ष समिति के आवहा्न पर 21मई 2015 कियें गयें आरक्षण आन्दोलन के दौरान दर्ज मुकदमों की वर्तमान में क्या स्थित हैं ? यह जानकारी प्राप्त करने के लिए मैने राजस्थान पुलिस से सूचना के अधिकार ( RTI) से सूचना मांगी थी ।गत वर्ष के आन्दोलन में कुल 18 मुकदमे दर्ज हुए थे । इन दर्ज मुकदमों में मेरे व कर्नल बैसला जी सहित सभी राजस्थान गुर्जर आरक्षण संघर्ष समिति के सदस्यों के खिलाफ़ धारा-124A यानी देशद्रोह व राज्यद्रोह तथा धारा 121व 121A यानी देश के खिलाफ़ युद्ध करना व शामिल होना , इन सभी धाराओं में कई मुकदमें दर्ज किये गयें थे राजस्थान पुलिस नें जो FIRउपलब्ध करवाई है उसकी आपको मै कापी भी पोस्ट कर रहा हूँ । दोस्तों अब आप ही बताये क्या हमनें देशद्रोह व राज्यद्रोह का काम किया था ? क्या हमनें हमारे देश के खिलाफ़ कोई युद्ध की घोषणा की या देश के खिलाफ़ युद्ध किया था ? हमनें तो हमारे पिछड़े समाजों जिसमें गुर्जर रैबारी बंजारा गडरिया व गाडियाँ लूहार जो सैकड़ों सालों से देश की मुख्यधारा से साजिश से अलग थलग कर दिये गयें थें उनके हक व अधिकार मांगने का काम किया था ।जो हमें संविधान में पदत्त हक व अधिकार दिए गयें थे।बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर जी द्दारा दिलाये गयें ,हमनें हमारे हक की आजादी मांगी थीं परन्तु राजस्थान सरकार नें हमारे हक व अधिकार मांगने पर वर्ष 2007 व वर्ष 2008में हमारे 72लालो को शहिद कर दिया था अब हमें देशद्रोही बता रहीं हैं ।आपको यह भी जानकारी दे दू कि गत वर्ष किये गयें आन्दोलन के दौरान हमारे समाज नें धैर्य व शान्ति का परिचय दिया और सरकारी संपत्ति का एक कील का भी नुकसान नहीं किया हमनें शान्ति पूर्ण आन्दोलन किया था ।राजस्थान की माननीया मु्ख्यमंत्री जी व प्रदेश के सभी प्रबुद्ध नागरिकों व समाज के नेताओं नें हमारे शान्तिपूर्ण आन्दोलन की प्रशंशा भी की थी तथा राज्य सरकार से हमारे समझौते मुताबिक सभी दर्ज मुकदमों को राज्य सरकार नें वापस लेने का समझौता लिखित में किया था ।खाद्य व आप्रूति मंत्री हेम सिंह भडाना जी कि अध्यक्षता में मुकदमों की वापसी की कार्य वाही की कमेटी का गठन भी किया जा चुका हैं कई बार इस कमेटी की बैठक भी हो चूंकि हैं परन्तु बडे़ खेद की बात हैं,हमारे खिलाफ़ लगाए गयें देशद्रोह जैसे मुकदमें को वापस नहीं लिया हैं ,हमें आज तक भी सरकार देशद्रोही बता रहीं हैं ,दोस्तों मुझे अंदेशा हैं कि गुजरात में पटेल-पाटीदार आरक्षण आन्दोलन के मुखिया भाई हार्दिक पटेल के खिलाफ़ जिस प्रकार देशद्रोह की धाराओं में झूठे मुकदमे दर्ज कर पटेल-पाटीदार आरक्षण आन्दोलन को दबाने की कुचेष्टा कर रहीं हैं गुजरात सरकार इसी तरह राजस्थान में भी हमारे आन्दोलन को दबाने का यह सरकार षडयंत्र तो नहीं कर रहीं हैं । आप ही तय करें हमें राजस्थान सरकार के खिलाफ़ क्या करना चाहिए अपने विचारों से मुझे अवगत कराये ।वैसे हम डरने वाले नहीं हैं यदि सरकार नें हमें आरक्षण नहीं दिया तो एक बार नहीं हजार बार करेगें आन्दोलन ॥धन्यवाद ॥

बुधवार, 6 जुलाई 2016

गांधी-नेहरू नहीं, बल्‍कि ये शख्‍स था हिंदुस्‍तान को ईश्‍वर का 'वरदान', इसकी वजह से आज 'भारत' है, 'हम सब' हैं ..! साभार-IBNKHABAR.COM

गांधी-नेहरू नहीं, बल्‍कि ये शख्‍स था हिंदुस्‍तान को ईश्‍वर का 'वरदान', इसकी वजह से आज 'भारत' है, 'हम सब' हैं ..!
साभार-IBNKHABAR.COM
भारत की आजादी एक लंबे राजनीतिक, सामाजिक, सांस्‍कृतिक संघर्ष का नतीजा थी। ब्रिटिशर्स से आजादी हासिल करने के लिए महात्‍मा गांधी से लेकर जवाहर लाल नेहरू और भगत सिंह से लेकर सुभाषचंद्र बोस सभी ने अपनी-अपनी तरह से योगदान दिया। आम जनता ने भी भारत की आजादी की जंग में अपना खून पसीना एक किया। क्‍या आम, क्‍या खाससभी किसी न किसी तरह से भारत की सत्‍ता पर स्‍वदेशी हुकूमत देखना चाहते थे।
यकीनन आजादी की ये जंग सफल भी हुई और 15 अगस्‍त 1947 को भारत आजाद हो गया। लेकिन क्‍या आप जानते हैं कि भारत की आजादी में और आजादी के बाद भी इस देश पर एक भयावह महाखतरा मंडरा रहा था और उससे देश को बाहर निकालने में किस शख्‍स का भूमिका थी? और क्‍यों उस शख्‍स को हिंदुस्‍तान बेहद अहम व्‍यक्‍ति के रूप में याद करता है, उसे ईश्‍वर का वरदान मानता है?
गांधी-नेहरू नहीं, बल्‍कि ये शख्‍स था हिंदुस्‍तान को ईश्‍वर का  
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दरअसल, इस शख्‍स ने एक ऐसा काम किया, जिसे न जवाहर लाल नेहरू कर पाते और न ही खुद राष्‍ट्रपिता महात्‍मा गांधी, क्‍योंकि जिस तरह की इस व्‍यक्‍ति की प्रवृत्‍ति थी, निश्‍चित ही उसे ईश्‍वर ने वरदान के रूप में भारत में भेजा था। यह वह शख्‍स था जिसकी दृढ़ इच्‍छा शक्‍ति, लौह जैसे इरादे के बूते भारत आजाद तो हुआ ही, बल्‍कि संगठित भी हुआ। आज जिस अखंड और एक भारत को हम देख रहे हैं यह पूरा भारत हम सबको इसी शख्‍स का दिया हुआ ऐसा अनमोल तोहफा है, जिसकी हम कभी कल्‍पना भी नहीं कर सकते।
  इस शख्‍स का नाम था सरदार बल्‍लभ भाई पटेल। लौह जैसे इरादों के चलते पटेल लौह पुरूष के नाम से पूरे भारत में लोकप्रिय रहे। दरअसल, भारत की आजादी के बाद सबसे बड़ा और चुनौतीपूर्ण काम था रियासत में खंड-खंड रूप से बंटे, राजे-रजवाड़ों के छोटी-छोटी सल्‍तनों की हुकूमतों के अहंकार में डूबे हिंदुस्‍तान को एक करना कोई आसान काम नहीं था। बहुत ही कम लोग जानते हैं कि अंग्रेज भारत को आजाद तो कर गए, लेकिन उन्‍होंने देश का बंटवारा भी कर दिया और नया मुल्‍क धर्म के नाम पर बना जिसका नाम था पाकिस्‍तान।
जाहिर है पाकिस्‍तान के बनाने का निर्णय अंग्रेजों द्वारा अधिकृत लार्ड माउंटबेटन कर गए, लेकिन वे हिंदुस्‍तान को अखंड बनाने वाली 536 छोटी-बड़ी रियासतों को लेकर चुप्‍पी साध गए। यह बेहद चौंकाने वाली बात थी कि उस समय नेहरू के लिए भी तकरीबन 500 से ज्‍यादा रियासतों को एक करना सबसे बड़ी और गंभीर चुनौती थी, जिसकी जिम्‍मेदारी उन्‍होंने सरदार बल्‍लभ भाई पटेल को सौंपी।
आपको जानकर आश्‍चर्य भी होगा कि पाकिस्‍तान के बनने के बाद तो मानों सभी राजाओं को लगा कि उनकी भी एक अपनी सल्‍तनत होगी और वे विदेशों में एक राष्‍ट्र के प्रमुख के रूप में जाने जाएंगे।
इसे तरह एक दृढ़ इच्‍छाशक्‍ति के कुशल संगठक, शानदार प्रशासक, पटेल के लिए 500 से ज्‍यादा राजाओं को आजाद भारत में शामिल करना आसान नहीं था। वे उन्‍हें नई कांग्रेस सरकार के प्रतिनिधि के रूप में इस बात के लिए राजी करने का प्रयास करना चाह रहे थे कि वे भारत की कांग्रेस सरकार के अधीन आ जाए। जिस तरह से उन्‍होंने हैदराबाद, जूनागढ़ जैसी रियासतों को एक किया वह काबिले तारीफ था। हैदराबाद के लिए तो बाकायदा उन्‍हें सेना की एक टुकड़ी भेजनी पड़ी। यकीनन विश्‍व इतिहास में ऐसा कोई शख्‍स नहीं हुआ, जिसने जिसने इतनी बड़ी संख्या में राज्यों का एकीकरण करने का साहस किया हो।
निश्‍चित ही यह एक बेहद कठिन काम था, क्‍योंकि जिस कश्‍मीर समस्‍या को हम आज देख रहे हैं, वैसे ही कुछ समस्‍या देश के कुछ अन्‍य हिस्‍सों में भी हो सकती थी, हालांकि जहां तक कश्मीर रियासत का प्रश्न है, इसे पंडित नेहरू ने स्वयं अपने अधिकार में लिया हुआ था, परंतु इतिहासकारों की मानें तो सरदार पटेल कश्मीर में जनमत संग्रह तथा कश्मीर के मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र संघ में ले जाने पर बेहद क्षुब्ध थे, और हम कम से कम इस बात में यकीं कर सकतेहैं कि पटेल होते तो कश्‍मीर समस्‍या का आज इस तरह से विकराल नहीं हो सकती थी।
बावजूद नि:संदेह सरदार पटेल द्वारा यह 562 रियासतों का एकीकरण विश्व इतिहास का एक आश्चर्य था। भारत की यह रक्तहीन क्रांति थी। महात्मा गांधी ने सरदार पटेल को इन रियासतों के बारे में लिखा था, "रियासतों की समस्या इतनी जटिल थी जिसे केवल तुम ही हल कर सकते थे।"



मंगलवार, 5 जुलाई 2016

== सोमनाथ युद्ध के इतिहास पर कविता ==ईसम सिंह चौहान

एक बार इस कविता को जरूर पढे, यकीनन आप शेयर किये बगैर नही रूकोगे। यह कविता प्रसिद्ध इतिहासकार 'ईसम सिंह चौहान' ने अपनी पुस्तक " परछाईयां (काव्य संग्रह) मे लिखी है।
जैसे ईसम सिंह जी ने सोमनाथ के पूरे युद्ध को इस कविता मे पिरोया है वो वाकई तारीफ के काबिल है।
==== सोमनाथ युद्ध के इतिहास पर कविता ====
सोमनाथ मंदिर को करने नष्ट,प्रभास पहन को करने नष्ट ।
चलदिया गजनी से महमूद, संग ले गोलो और बारूद ॥
विश्व विजय था उसका लक्ष, लट खसोट मे वह था दक्ष ।
राह मे आई अनेको बाधा, सैन्य बल भी खप गया आधा ॥
थे मनसूबे उसके मजबूत, रोक ना सके उसको कोई पूत ।
राह मे पडता था सुल्तान, जा पहुचाँ वहां पर सुल्तान ॥
मुल्तान का शासक था अजयपाल, बन गया वह महमूद की ढाल ।
हो गया अजयपाल बैईमान, नाम डुबा बैठा चौहान ॥
सुन अजयपाल की करतूत, आपा खो बैठा गुर्जर का पूत ।
था वो घोघा बापा रणवीर, बूढा शेर गजब का वीर ॥
चौहान खानदान की आन, सम्राट गुर्जरेश्वर की शान ।
पर आगे दाग ना लगने दूंगा, सोमनाथ को ना जलने दूंगा ॥
मिट गया वीर देश धर्म पर, कर आधात महमूद मरम पर ।
भूला ना उनको हम पाएंगे, तुझे घोघा बापा हम गायेंगे ॥
दी खूब मार था लिया घेर, महमूद जब पहुंचा अजमेर ।
हिन्दु धर्म का है भाग्य मन्द, यहा हर युग मे जन्मे जयचंद ॥
देकर कपट व देकर धोखा, महमूद भी पा गया था मौका ।
करके सुलह शान्ति का नाटक, जा पहुचां पुष्कर के फाटक ॥
स्नान ध्यान मे था गुर्जर चौहान, पीठ पे वार करगया सुल्तान ।
था लडता जाता बढता जाता, उसका सैन्य बल था घटता जाता ॥
उसको ना रोक सकी कोई बात, उसका लक्ष्य ही था गुजरात ।
महमूद की प्रतिक्षा मे अधीर, था गुर्जर भू का गुर्जर वीर ॥
बडा ही पराक्रमी और बलवीर ।जिसकी थी रक्त प्याशी शमसीर ॥
महमूद की खत्म करने नौटंकी, गुर्जरेश्वर वीर भीमदेव सोलंकी ।
लेकर अपनी सैना एक लाख, महमूद के सपने करने खाक ॥
जा पहुचां महालय सोमनाथ, मानो वहां खुद पशुपति नाथ ।
कर रहे हो सैन्य संचालन, करके धर्म और मर्यादा पालन ॥
था तत्पर गुर्जर कुल गौरव, रण क्षेत्र मे मचाने रौरव ।
दोनो पक्ष के सैनिक बढ गए, अश्वरोही अश्वो पर चढ गए ॥
थी चमकी उंटो पर तलवार। थे हाथियों पर हाथो असवार ॥
बडी भयंकर हुई लडाई, महमूद ने उसदिन पार ना पाई ।
खाकर अच्छा खासा जन नुकसान, पीछे हट गया था सुल्तान ॥
दूसरे दिन युद्ध हुआ घनघोर, चारो और मच गया शोर ।
या मेरे मौला हमे बचाओ, गढ गजनी की राह दिखाओ ॥
दे हर-हर महादेव का नारा, अरिदल को था खूब ही मारा ।
गुर्जर, काछी और भील, शत्रूदल सिर मे ठोक रहे थे कील ॥
करके शत्रु मार्ग अवरूद्ध, भीमदेव गुर्जरेश कर रहा था युद्ध ।
उसकी खडग थी जश्न मनाती, बार बार वह खून मे नहाती ॥
हाय देश का दुर्भाग्य निरा, गुर्जरेश अरिदल से घिरा ।
होकर घायल था वीर गिरा, फिर भी वह वापस ना फिरा ॥
जब सोमनाथ का हुआ पतन, था संकट मे आ गया पतन ।
था गजनवी महमूद वतन, रो रही अपना मांए और बहन ॥
देश भी डूबा धर्म भी डूबा, इन सबको एक संग ले डूबा ।
घर का भेदी देश का दूश्मन, जयचन्द कहो या कहो विभीषण ॥
शक्ति मे कम ना भक्ति मे कम, जीत की खुशी ना हार का गम ।
खूब लडे वतन दीवाने, घर के बन गये थे बेगाने ॥
लूट खसोट कर देव का धाम, लूट खसोट कर शहर व ग्राम ।
वापस लौटा जब महमूद, करदिया उसका राह अवरूद्ध ॥
भीम भयंकर आंधी तूफान, सुल्तान भूल गया औसान ।
दब गए उसके सारे हाथी, बिछडे उसके सारे साथी ॥
जो रखते थे जीने की चाह, मिलता नही था उनको राह ।
हो गए वह जीवन से निराश, उनको तडफा रही थी प्यास ॥
थे लुटे लुटेरे दस्यु दल से, रख दी जीत हार मे बदल के ।
क्या यह प्रभू लीला की लाली थी, लौटते महमूद की मुट्ठिया खाली थी ॥
जिससे उसने जान थी हारी, वह अबला एक हिन्दु नारी ।
उससे पा प्राणो की भीख, महमूद पा गया था सीख ॥
जब वह वापस गजनी लौटा, पास ना उसके पैसा खौटा ।
हुआ क्षीण था उसका बल, हो गया खत्म उसका दल ।।
स्वास्थ्य लाभ भीम गुर्जरेश ने पाया, लौट के वह प्रभास पहन आया ।
जिधर जिधर गया भीमदेव महान, उसने पाया समुचित सम्मान ॥
• संदर्भ :
पुस्तक - परछाईयां (काव्य संग्रह)
लेखक - ईसम सिंह चौहान

उत्तराखंड का महर/ महरा गूजर समुदाय - डा. सुशील भाटी

                                                                    डा. सुशील भाटी

5 अगस्त को उत्तराखंड सरकार ने उत्तरकाशी जिले के चिन्यालीसौड़ विकास खंड की गूजर महर/ महरा जाति को अन्य पिछड़े वर्ग का दर्जा प्रदान किया हैं, इस आशय की खबर 6 अगस्त 2013 को उत्तराखंड के सभी अखबारों में छपी हैं| पंडित हरिकृष्ण रतूडी नेगढ़वाल का इतिहास नामक पुस्तक  में उत्तराखंड के महरा समुदाय की उत्त्पत्ति हरिद्वार जनपद के लंढोरा नामक स्थान से आये हुए गूजरों से बताई हैं| उत्तराखंड के हरिद्वार जनपद के गूजर भी अन्य पिछड़े वर्ग में आते हैं|

यदि उत्तराखंड के अन्य स्थानों के गूजर महर/ महरा समुदाय की सामजिक एवं शेक्षणिक स्थिति चिन्यालीसौड़ विकास खंड के गूजर महर समुदाय जैसी हैं तो उत्तराखंड के सभी महरा लोगो को अन्य पिछड़े वर्ग में लिया जा सकता हैं|

महर मिहिर शब्द का रूपांतर हैं| इतिहासकार डी. आर. भंडारकर के मिहिर हूणों का दूसरा नाम हैं| हूण गूजरों का एक महत्वपूर्ण गोत्र हैं| मिहिर अजमेर इलाके के गूजरों की उपाधि हैं| गूजर महर/ महरा समुदाय के उद्गम स्थल लंढौरा गूजरों की रियासत रही हैं, और वह हूणों के कुछ गांव भी हैं| जिनमे कुआखेड़ा हूणों का प्रसिद्ध गांव हैं| कुआखेडा नामक एक गांव खटीमा की तरफ भी हैं, जिसमे महरा समुदाय के लोग भी रहते हैं|

सन्दर्भ

J M Campbell, The Gujar, Gazeteer of Bombay Presidency, vol.9, part.2, 1896

D R Bhandarkarkar, Gurjaras, J B B R A S, Vol.21, 1903


22 March International Gurjar Day: Isam Singh Chauhan

22 March  International Gurjar Day
I appeal to all individual caste lover , intellectual person of caste Gurjar and reputed organisations interested to uplift our caste to please work for the unity and solidarity of our Samaj , not to create confusion as to the date of International Gurjar Day. All Gurjar monarchs are our respected dignities of history. We have deep rooted respect for each one .Enthroning Day of Emperor Kanishk is being celebrated as International Gurjar Day all over world..Let us all stand united to celebrate 22 March as International Gurjar Day without any dispute or differences . Jai Gurjar , Jai Bharat .
Isam Singh Chauhan की फ़ोटो.
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