बुधवार, 20 दिसंबर 2017

गुर्जर-प्रतिहार वंश के महान हिन्दू धर्म रक्षक सम्राट मिहिर भोज की कहानी


मिहिर का अर्थ सूर्य होता है और सच्चे अर्थों में सम्राट मिहिर भोज भारत में अपने समय के सूर्य थें।उत्तर भारत में प्रसिद्ध एक लोकोक्ति उनकी विरासत को चरितार्थ करती है,लोकोक्ति है “कहाँ राजा भोज कहाँ गंगू तेली”।एक महान योद्धा,कुशल घुड़सवार होने के साथ उन्हें विद्वानों ने उनकी विद्वता के लिए “कविराज” की उपाधि भी दी थी।गुर्जर-प्रतिहार के मुलपुरुष प्रभु श्रीराम के छोटे भाई लक्ष्मण को माना जाता है।इस हिसाब से आज के उत्तर भारत में पाये जाने वाली गुर्जर जाति का सम्बन्ध क्षत्रिय कूल से है,उनके वंश की लगभग 500 वर्ष की शाषण काल भी इस बात की घोतक है।नागभट्ट प्रथम से लेकर गुर्जर-प्रतिहार के अंतिम शाषक तक अरब आक्रमणकारियों से लड़ते रहें लेकिन उनमे लगातार 50 वर्षों तक युद्ध में अरबों के छक्के छुड़ाने वाले मिहिर भोज की कहानी बेमिशाल और अद्वितीय है। ईस्वी सन् (712-1192) के बिच लगभग 500 वर्षों तक गुर्जर-प्रतिहार वंश ने अनेक युद्ध में बाहरी आक्रमणकारियों को हराया।उनके कमजोर होने के बाद ही महमूद गजनवी और मुहम्मद गोरी ने भारत के तरफ मुहीम की शुरुआत की।आज भारत की सनातन संस्कृति के वे सबसे बड़े ध्वज वाहक हैं।कुछ देर पढ़िए आपको सब समझ आ जाएगा की कैसे?

मिहिर भोज का साम्राज्य पश्चिम में सिंधु नदी से पूरब में बंगाल तक तथा उत्तर में कश्मीर से लेकर दक्षिण में गोदावरी नदी तक फैला हुआ अत्यन्त विशाल और समृद्ध क्षेत्र था।

मिहिर भोज विष्णु और शिव भगवान के भक्त थे तथा कुछ सिक्कों मे इन्हे ‘आदिवराह’ भी माना गया है।वराह(जंगली सूअर) के उपाधि के पीछे की कहानी यह है की जिस तरह से भगवान विष्णु ने वराह अवतार लेकर हिरण्याक्ष से इस भूमि का रक्षा किया था उसी तरह इस भूमि की रक्षा मिहिर भोज ने की थी। महरौली नामक जगह इनके नाम पर रखी गयी थी तथा राष्ट्रीय राजमार्ग 24 का बड़ा भाग सम्राट मिहिरभोज मार्ग के नाम से जाना जाता है।

गुर्जर सम्राट मिहिर भोज का शाषण काल 836 ईसवीं से 885 ईसवीं तक माना जाता है।यानी लगभग 50 वर्ष।सम्राट भोज के साम्राज्य को तब गुर्जर देश के नाम से जाना जाता था।

प्रसिद्द अरब यात्री सुलेमान ने भारत भ्रमण के दौरान लिखी पुस्तक सिलसिलीउत तुआरीख 851 ईस्वीं में सम्राट मिहिर भोज को इस्लाम का सबसे बड़ा शत्रु बताया है , साथ ही मिहिर भोज की महान सेना की तारीफ भी की है।जो इनकी हिन्दू धर्म की रक्षा में इनकी भूमिका बताने के लिए काफी है।

915 ईस्वीं में भारत आए बगदाद के इतिहासकार अल- मसूदी ने अपनी किताब मरूजुल महान मेें भी मिहिर भोज की 8 लाख पैदल सैनिक और हज़ारों हाथी और हज़ारों घोड़ों से सज्जी इनके पराक्रमी सेना के बारे में लिखा है।इनकी राजशाही का निशान दांत निकाले चिंघाड़ता हुआ “वराह”(जंगली सूअर) था और ऐसा कहा जाता है की मुस्लिम आक्रमणकारियों के मन में इतनी भय थी कि वे वराह यानि जंगली सूअर से नफरत करने लगे थें। मिहिर भोज की सेना में सभी वर्ग एवं जातियों के लोगो ने राष्ट्र की रक्षा के लिए हथियार उठाये और इस्लामिक आक्रान्ताओं से लड़ाईयाँ लड़ी।

सम्राट मिहिर भोज के उस समय स्थानीय शत्रुओं में बंगाल के पालवंशी
और दक्षिण का राष्ट्रकूट(यादव कूल) थें,इसके अलावे बाहरी शत्रुओं में अरब के खलीफा मौतसिम वासिक, मुत्वक्कल, मुन्तशिर, मौतमिदादी थे । अरब के खलीफा ने इमरान बिन मूसा को सिन्ध के उस इलाके पर शासक नियुक्त किया था। जिस पर अरबों का अधिकार रह गया था। सम्राट मिहिर भोज ने बंगाल के राजा देवपाल के पुत्र नारायणलाल को युद्ध में परास्त करके उत्तरी बंगाल को अपने साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया था। दक्षिण के राष्ट्र कूट राजा अमोधवर्ष को पराजित करके उनके क्षेत्र अपने साम्राज्य में मिला लिये थे । सिन्ध के अरब शासक इमरान बिन मूसा को पूरी तरह पराजित करके समस्त सिन्ध को गुर्जर-प्रतिहार साम्राज्य का अभिन्न अंग बना लिया था। केवल मंसूरा और मुलतान दो स्थान अरबों के पास सिन्ध में इसलिए रह गए थे कि अरबों ने गुर्जर सम्राट के तूफानी भयंकर आक्रमणों से बचने के लिए अनमहफूज नामक गुफाए बनवाई हुई थी जिनमें छिप कर अरब अपनी जान बचाते थे।सम्राट मिहिर भोज नहीं चाहते थे कि अरब इन दो स्थानों पर भी सुरक्षित रहें और आगे संकट का कारण बने इसलिए उन्होंने कई बड़े सैनिक अभियान भेज कर इमरान बिन मूसा के अनमहफूज नामक जगह को जीत कर गुर्जर साम्राज्य की पश्चिमी सीमाएं सिन्ध नदी से सैंकड़ों मील पश्चिम तक पंहुचा दी और इस प्रकार भारत देश को अगली शताब्दियों तक अरबों के बर्बर, धर्मान्ध तथा अत्याचारी आक्रमणों से सुरक्षित कर दिया था।

साहस,शौर्य,पराक्रम वीरता और संस्कृति के रक्षक सम्राट मिहिर भोज जीवन के अंतिम वर्षों में 50 वर्ष तक राज्य करने के पश्चात हिन्दू धर्म के सन्यास परम्परा के अनुसार अपने बेटे महेंद्र पाल को राज सिंहासन सौंपकर सन्यासवृति के लिए वन में चले गए थे।

किसी कवि ने उनके बारे में निम्न पंक्तियाँ लिखी है।

“दो तरफ समुद्र एक तरफ हिमालय,
चौथी ओर स्वयं वीर गुर्जर-प्रतिहार थें,
हर बार हर युध्द में अरबों का हराया,
प्रतिहार मिहिर भोज ऐसे प्रहार थें”

– लेखक – राजन भारद्वाज अग्निवीर

मंगलवार, 19 दिसंबर 2017

गुर्जर प्रतीक चिन्ह - गुर्जर सम्राट कनिष्क का शाही निशान

गुर्जर प्रतीक चिन्ह - सम्राट कनिष्क का शाही निशान

Gurjar / Gujjar Logo- The Royal Insignia of Kanishka

डॉ सुशील भाटी

सम्राट कनिष्क के सिक्के पर उत्कीर्ण पाया जाने वाला ‘राजसी चिन्ह’ को ‘कनिष्क का तमगा’ भी कहते हैं| कनिष्क के तमगे में ऊपर की तरफ चार नुकीले काटे के आकार की रेखाए हैं तथा नीचे एक खुला हुआ गोला हैं| कनिष्क का राजसी निशान “शिव के त्रिशूल” और उनकी की सवारी “नंदी बैल के पैर के निशान” का समन्वित रूप हैं| सबसे पहले इस राज चिन्ह को कनिष्क के पिता सम्राट विम कड्फिस ने अपने सिक्को पर उत्कीर्ण कराया था| विम कड्फिस शिव का परम भक्त था तथा उसने माहेश्वर की उपाधि धारण की थी| यह राजसी चिन्ह कुषाण राजवंश और राजा दोनों का प्रतीक था तथा राजकार्य में मोहर के रूप में प्रयोग किया जाता था| 

मशहूर पुरात्वेत्ता एलेग्जेंडर कनिंघम इतिहास प्रसिद्ध कुषाणों की पहचान आधुनिक गुर्जरों से की हैं| उनके अनुसार गुर्जरों का कसाना गोत्र कुषाणों का वर्तमान प्रतिनिधि हैं|

सम्राट कनिष्क का ‘राजसी चिन्ह’ गुर्जर कौम की एकता, उसके गौरवशाली इतिहास और विरासत का प्रतीक हैं| ऐतिहासिक तौर पर कनिष्क द्वारा स्थापित कुषाण साम्राज्य गुर्जर समुदाय का प्रतिनिधित्व करता हैं, क्योकि यह मध्य और दक्षिण एशिया के उन सभी देशो में फैला हुआ था, ज़हाँ आज गुर्जर निवास करते हैं| कुषाण साम्राज्य के अतरिक्त गुर्जरों से सम्बंधित कोई अन्य साम्राज्य नहीं हैं, जोकि पूरे दक्षिणी एशिया में फैले गुर्जर समुदाय का प्रतिनिधित्व करने के लिए अधिक उपयुक्त हो| यहाँ तक की मिहिर भोज द्वारा स्थापित प्रतिहार साम्राज्य केवल उत्तर भारत तक सीमित था, तथा पश्चिमिओत्तर में करनाल इसकी बाहरी सीमा थी| 

कनिष्क के साम्राज्य का एक अंतराष्ट्रीय महत्व हैं, दुनिया भर के इतिहासकार इसमें अकादमिक रूचि रखते हैं|

शुक्रवार, 10 नवंबर 2017

ओबीसी वर्गीकरण ही आरक्षण का स्थायी समाधान: महावीर पोसवाल (राष्ट्रीय अध्यक्ष - पथिक सेना)

ओबीसी वर्गीकरण ही आरक्षण का स्थायी समाधान: महावीर पोसवाल (राष्ट्रीय अध्यक्ष - पथिक सेना)

 संदर्भ

हाल ही में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने ओबीसी की केंद्रीय सूची के वर्गीकरण के लिये आयोग बनाने के फैसले को मंज़ूरी दी है। यानी इस वर्ग में भी पिछड़ेपन की सीमा आधार पर आरक्षण दिया जाएगा। दूसरे शब्दों में कहें तो एक तरह से यह कोटे के अंदर कोटा होगा। सरकार के राजनैतिक उद्देश्यों से परे हटकर विचार करें तो सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने की दिशा में यह एक महत्त्वपूर्ण कदम साबित हो सकता है। इस लेख में हम ओबीसी यानी अन्य पिछड़ा वर्ग आरक्षण, सरकार के इस प्रयास के निहितार्थों एवं संभावित प्रभावों तथा इसकी ज़रूरतों के बारे में चर्चा करेंगे।

ओबीसी आरक्षण की पृष्ठभूमि

मंडल आयोग का गठन वर्ष 1979 में "सामाजिक या शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्ग की पहचान” के उद्देश्य से किया गया था। इस आयोग का नेतृत्व भारतीय सांसद बी.पी. मंडल द्वारा किया गया था।

जातिगत भेदभाव को दूर करने के लिये आरक्षण एवं कोटा निर्धारण की व्यवस्था की गई। लेकिन सवाल यह था कि किन समूहों को यह लाभ दिया जाए अर्थात् समूहों के पिछड़ेपन का निर्धारण कैसे हो।

गौरतलब है कि समूहों के पिछड़ेपन का निर्धारण के लिये मंडल आयोग द्वारा ग्यारह सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक संकेतकों का इस्तेमाल किया गया। वर्ष 1980 में मंडल आयोग की रिपोर्ट में पिछड़े वर्ग के लोगों के लिये सरकारी नौकरियों में 27 फीसदी आरक्षण की सिफारिश की गई।

मंडल आयोग ने यह भी सिफारिश की कि केंद्र और राज्य सरकारों के अधीन चलने वाली वैज्ञानिक, तकनीकी तथा प्रोफेशनल शिक्षण संस्थानों में दाखिले के लिये ओबीसी वर्ग के छात्र-छात्राओं के लिये 27% आरक्षण लागू किया जाए।

वर्ष 1990 में मंडल आयोग की सिफारिशों को सरकार द्वारा लागू किया गया था, जिसके परिणामस्वरूप राष्ट्रीय राजनीति में व्यापक बदलाव आया। हालाँकि कई जगह व्यापक विरोध भी देखने को मिला, लेकिन इंद्रा साहनी मामले में सुप्रीम कोर्ट ने भी इस फैसले पर मुहर लगा दी।

विदित हो कि इंद्रा साहनी मामले में ही सुप्रीम कोर्ट ने यह व्यवस्था दी थी कि पिछड़े वर्गों को पिछड़ा या अति-पिछड़ा के रूप में श्रेणीबद्ध करने में कोई संवैधानिक या कानूनी बाधा नहीं है। अतः राज्य सरकारें ऐसा करना चाहें तो कर सकती हैं।

तब से भारतीय राजनीति में आरक्षण इतना महत्त्वपूर्ण हो गया है कि इसके जिक्र मात्र से सरकारे बन और बिगड़ जाती हैं।

क्या है ओबीसी में वर्गीकरण का मामला

भारतीय सामाजिक व्यवस्था कुछ ऐसी हैं कि ओबीसी में आने वाली कुछ जातियाँ ओबीसी में ही शामिल कुछ अन्य जातियों से सामाजिक और आर्थिक दोनों ही रूपों में बेहतर स्थिति में हैं।

दरअसल, मंडल आयोग की सिफारिशों के आधार पर ओबीसी आरक्षण की व्यवस्था तो कर दी गई, लेकिन ओबीसी में ही अत्याधिक कमज़ोर वर्ग के लिये कुछ विशेष नहीं किया गया। यही कारण है कि ओबीसी आरक्षण का लाभ भी ओबीसी वर्ग से ताल्लुक रखने वाली कुछ ताकतवर जातियों के हाथों में ही सिमटकर रह गया है।

ऐसे में ओबीसी वर्ग के अन्दर ही वर्गीकरण की माँग लगातार की जाती रही है और अब तक नौ राज्यों-आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, पुडुचेरी, कर्नाटक, हरियाणा, झारखंड, पश्चिम बंगाल, बिहार, महाराष्ट्र और तमिलनाडु ने पहले ही ओबीसी वर्गीकरण को लागू कर दिया है।

ओबीसी आरक्षण से संबंधित केन्द्रीय सूची में इस प्रकार के वर्गीकरण की व्यवस्था नहीं की गई है।

हालाँकि ‘पिछड़ा वर्ग आयोग’ को संवैधानिक दर्ज़ा देने का फैसला कर चुकी सरकार ने अब ओबीसी कोटे के अंदर कोटे की व्यवस्था कर उन पिछड़ी जातियों को राहत देने की तैयारी की है, जिन्हें आरक्षण का समुचित लाभ नहीं मिल पाता है।

केन्द्रीय ओबीसी सूची वर्गीकरण आयोग का कार्य

इस आयोग का नाम 'अन्य पिछड़ा वर्ग उप-वर्गीकरण जाँच आयोग' होगा। यह ओबीसी की केंद्रीय सूची में शामिल जातियों को आरक्षण के लाभ के असमान वितरण की जाँच करेगा। साथ ही असमानता दूर करने के तौर-तरीके और प्रक्रिया भी तय करेगा।

यह ओबीसी के भीतर उप-वर्गीकरण के लिये वैज्ञानिक और उचित दृष्टिकोण पर आधारित व्यवस्थात्मक मानदंडों के निर्माण का कार्य भी करेगा। यह आयोग अध्यक्ष की नियुक्ति की तारीख से 12 सप्ताह के भीतर अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करेगा।

दरअसल, पिछड़ा वर्ग आयोग ने तीन वर्गों में वर्गीकरण का सुझाव दिया था- पिछड़ा वर्ग, अधिक पिछड़ा वर्ग और अति-पिछड़ा वर्ग। यह आयोग उन जातियों की संख्या और पिछड़ेपन को ध्यान में रखकर नई सूची तैयार करेगा।

आगे की राह

यदि सच में हम हाशिए पर ठेल दिये गए समूहों के जीवन में आरक्षण के ज़रिये महत्त्वपूर्ण बदलाव लाना चाहते हैं, तो हमारे पास केवल दो विकल्प हैं-या तो सरकार को सरकारी नौकरियों और विश्वविद्यालयों में सीटों की उपलब्धता में व्यापक रूप से वृद्धि करनी चाहिये या फिर इन लाभों को प्राप्त करने योग्य आबादी का आकार कम करना चाहिये।

इन दो विकल्पों में से सबसे व्यवहार्य विकल्प दूसरा है। लेकिन इसके लिये हमें ज़रूरत है जाति संबंधित मानद आँकड़ों की।

जातिगत जनगणना के संबंध में हमारे पास आँकड़ों का अभाव है, अब जबकि वर्ष 2021 की जनगणना की तैयारियाँ चल रही हैं तो जातिगत के आँकड़ों को इकट्ठा करने के लिये अब एक विशेषज्ञ समूह बनाने का समय है। बिना इन आँकड़ों के यह आयोग अपने उद्देश्यों की प्राप्ति में उतना सफल नहीं रहेगा।

निष्कर्ष

इसमें कोई दो राय नहीं हैं कि भारत की जातीय और सामाजिक व्यवस्था काफी जटिल है। ओबीसी वर्ग के अंतर्गत ही कुछ ऐसी जातियाँ हैं जो इसी वर्ग से संबंध रखने वाली अन्य जातियों के उत्पीडन में शामिल हैं। ऐसे में ओबीसी आरक्षण का लाभ कुछ सीमित समूहों तक ही सीमित हो जाना लाज़िमी है।

ऐसे में सरकार का यह कदम स्वागत योग्य है, क्योंकि ओबीसी आरक्षण कोटे में एक कोटा बनाकर इस आरक्षण वर्ग में लाभ से वंचित अन्य जातियों को राहत दी जा सकती है।

दरअसल, मंडल आयोग की सिफारिशों का उद्देश्य आरक्षण के ज़रिये सामाजिक न्याय के लक्ष्य को पूरा करना था, लेकिन पिछले कुछ समय से इस व्यवस्था को इस रूप में देखा जाने लगा है जैसे यह सरकारी नौकरियाँ हासिल करने का आसान ज़रिया हो।

यही कारण है कि वोट बैंक के लालच में कई राज्यों ने ओबीसी वर्ग के अन्दर वर्गीकरण करते हुए 50 प्रतिशत की तय सीमा से आगे जाकर भी आरक्षण की व्यवस्था की, जिसे सुप्रीम कोर्ट को खारिज़ करना पड़ा। इस आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद वर्गीकरण की एक केन्द्रीय सूची मिल जाएगी, जिससे आरक्षण के नाम पर आए दिन होने वाले दंगा-फसादों से मुक्ति मिल सकती है।

शुक्रवार, 20 अक्तूबर 2017

दीपावली/अन्नकूट - नववर्ष का शुभारम्भ : डॉ. सुशील भाटी

गुजरात में दीपावली, कार्तिक की अमावस्या, विक्रमी संवत का अंतिम दिन होता हैं तथा दीपावली से अगला दिन, कार्तिक की शुक्ल पक्ष प्रतिपदा, विक्रमी संवत का पहला दिन होता हैं| इस प्रकार गुजरात में दीपावली से अगले दिन नव वर्ष ‘नूतन वर्ष’ बेस्टू वर्ष’ के रूप में मनाया जाता हैं हैं, इसे विक्रमी नवसंवत्सर भी कहते हैं| गुजरात के लोग इस दिन लक्ष्मी पूजन करते हैं तथा नव वर्ष दिवस को ‘अन्नकूट’ के नामक त्यौहार के रूप में मनाते हैं| गुजरात ही नहीं उत्तर भारत के अन्य राज्यों के व्यापारी समुदाय भी कार्तिक की शुक्ल पक्ष प्रतिपदा को नव वित्तीय वर्ष के रूप में मानते हैं और इस दिन से अपने व्यापारिक खातो को बंद कर नए खातो की शुरुआत करते हैं| परम्परागत रूप से भारत में दीपावली की व्यापारी बनिया समुदाय के त्यौहार के रूप में मान्यता रही हैं| इस प्रकार दीपावली के अवसर पर लक्ष्मी पूजन कर व्यापारी समुदाय नव का शुभारम्भ करता हैं, यह परम्परा गुजरात में अधिक स्पष्ट और बलवान हैं|

वैसे उत्तर भारत में दीपावली से अगले दिन, कार्तिक की शुक्ल पक्ष प्रतिपदा, को गोवर्धन पूजा का त्यौहार धूम-धाम से मनाया जाता हैं परन्तु उसमे नव वर्ष दिवस जैसा कुछ नहीं होता|

गुजरात तथा उत्तर भारत के परम्परागत व्यापारी समुदाय के इस नव वर्ष दिवस की जानकारी इस मायने में भी महत्वपूर्ण हैं कि शेष उत्तर भारत में कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा नहीं बल्कि चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को विक्रमी संवत का नव वर्ष दिवस होता हैं|

सन्दर्भ-

भोजराज दिवेदी, रिलीजियस बेसिस ऑफ़ हिन्दू बिलीफ्स,
https://books.google.co.in/books?isbn=9351650928

http://hindupad.com/gujarati-new-year-nutan-varsh-bestu-varsh-in-gujarat/

http://hi.drikpanchang.com/festivals/gujarati-newyear/gujarati-newyear-date-time.html

http://aajtak.intoday.in/story/diwali-2017-accounts-poojan-tdha-1-959026.html

शनिवार, 23 सितंबर 2017

विशेष पिछड़ा वर्ग के नाम एक अपील: नन्दलाल गुर्जर

मांडलगढ़ विधानसभा उपचुनाव में एसबीसी को मिले टिकट, आजादी के 70 साल बाद भी है मूलभूत सुविधाओं से वंचित वरना कुठाराघात सहन नहीं किया जायेगा
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(नन्दलाल गुर्जर) मांडलगढ़ विधायक कीर्तिकुमारी जी के निधन के बाद मांडलगढ़ विधानसभा उपचुनाव होंगे| उपचुनाव में भाजपा और कांग्रेस में उम्मीदवार अपनी अपनी दावेदारी और दमखम दिखा रहे है| भाजपा से सम्भावित प्रत्याशी हर्षिता कंवर, भीलवाड़ा UIT चैयरमैन गोपाल खण्डेलवाल, भीलवाड़ा जिला प्रमुख शक्ति सिंह हाड़ा, पंजाब के राज्यपाल वीपी सिंह के पुत्र अविजित सिंह और कांग्रेस से 2013 में मोदी लहर में पराजय रहे विवेक धाकड़, पूर्व विधायक प्रदीप कुमार सिंह, पूर्व प्रधान गोपाल मालवीय, कांग्रेस जिलाध्यक्ष अनिल डांगी, पूर्व मुख्यमंत्री शिवचरण माथुर की पुत्री वन्दना माथुर एवं पौत्र राहुल माथुर आदि| मांडलगढ़ विधानसभा क्षेत्र में धाकड़ समाज के 35000 मतदाता है और गुर्जर समाज के 30000 मतदाता है जो उपचुनाव जीत के लिए निर्णायक भूमिका में है| अगर आकड़ों पर गौर करे तो मांडलगढ़ विधानसभा क्षेत्र में विशेष पिछड़ा वर्ग का वोटबैंक सबसे ज्यादा और मजबूत है| गाड़िया लुहार समाज के 1000 मतदाता, रेबारी समाज के 4500 मतदाता, बंजारा समाज के 10000 मतदाता, गायरी समाज के 5000 मतदाता, गुर्जर समाज के 30000 मतदाता है| एसबीसी के 50000 से ज्यादा वोट है| अतः दोनों पार्टियों भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस पार्टी  एसबीसी उम्मीदवार को अपना प्रत्याशी घोषित करती है तो निश्चित रूप से यह उपचुनाव संजीवनी साबित होगा| ताजुब की बात यह है कि आजादी के 70 साल बीत जाने के बाद भी विशेष पिछड़ा वर्ग की विधानसभा क्षेत्र में अनदेखी की गई और 70 साल तक ये राजनीतिक दल विशेष पिछड़ा वर्ग का वोटबैंक के रूप में उपयोग करते रहे| आज भी मूलभूत सुविधाओं से विशेष पिछड़ा वर्ग वंचित है| यह समय है एकता का और एकजुट होकर अधिकारो के प्रति संघर्ष करने का| विशेष पिछड़ा वर्ग अपने हक और अधिकारों के लिए एकजूट है|
नन्दलाल गुर्जर
मो. 9166904121

मंगलवार, 12 सितंबर 2017

गुर्जर इतिहास चेतना के सूत्र : डॉ. सुशील भाटी

गुर्जर इतिहास चेतना के सूत्र

डॉ सुशील भाटी

प्राचीन गुर्जर इतिहास को समझने के लिए तीन बिन्दु हैं - कुषाण साम्राज्य (50- 250ई.), हूण साम्राज्य (490-542 ई.) तथा गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य (725-1018 ई.)| प्राचीन भारत में गुर्जरों के पूर्वजों द्वारा स्थापित किये गए इन साम्राज्यों के क्रमश सम्राट कनिष्क (78-101 ई.), सम्राट मिहिरकुल (502-542 ई.) और सम्राट मिहिर भोज (836-886 ई.) प्रतिनिधि आइकोन हैं| 

गुर्जर समाज में इतिहास चेतना उत्पन्न करने हेतु “सूर्य उपासक सम्राट कनिष्क” की जयंती ‘सूर्य षष्ठी’ छठ पूजा के दिन वर्षो से मनाई जाती रही हैं| भारत में सूर्य पूजा का प्रचलन अति प्राचीन काल से ही है, परन्तु ईसा की प्रथम शताब्दी में, कुषाण कबीलों ने इसे विशेष रूप से लोकप्रिय बनाया। कुषाण मुख्य रूप से मिहिर ‘सूर्य’ के उपासक थे। सूर्य का एक पर्यायवाची ‘मिहिर’ है, जिसका अर्थ है, वह जो धरती को जल से सींचता है, समुद्रों से आर्द्रता खींचकर बादल बनाता है। सम्राट कनिष्क की मिहिर ‘सूर्य’ के प्रति आस्था को प्रकट करने वाले अनेक पुरातात्विक प्रमाण हैं| कुषाण सम्राट कनिष्क ने अपने सिक्कों पर मीरों ‘मिहिर’ देवता  का नाम और चित्र अंकित कराया था|  सम्राट कनिष्क के सिक्के में मिहिर ‘सूर्य’ बायीं और खड़े हैं। भारत में सिक्कों पर सूर्य का अंकन किसी शासक द्वारा पहली बार हुआ था। पेशावर के पास ‘शाह जी की ढेरी’ नामक स्थान पर एक बक्सा प्राप्त हुआ इस पर कनिष्क के साथ सूर्य एवं चन्द्र के चित्र का अंकन हुआ है। मथुरा के सग्रहांलय में लाल पत्थर की अनेक सूर्य प्रतिमांए रखी है, जो कुषाण काल की है। इनमें भगवान सूर्य को चार घोड़ों के रथ में बैठे दिखाया गया है। वे कुर्सी पर बैठने की मुद्रा में पैर लटकाये हुये है। उनका शरीर ‘औदिच्यवेश’ अर्थात् पगड़ी,  लम्बा कोट और सलवार से ढका है और वे ऊंचे जूते पहने हैं। उनकी वेशभूषा बहुत कुछ, मथुरा से ही प्राप्त  कनिष्क की सिरविहीन प्रतिमा जैसी है। भारत में ये सूर्य की सबसे प्राचीन मूर्तियां है| भारत में पहले सूर्य मन्दिर की स्थापना मुल्तान में हुई थी, जिसे कुषाणों ने बसाया था। इतिहासकार डी. आर. भण्डारकर के अनुसार कनिष्क के शासन काल  में ही सूर्य एवं अग्नि के पुरोहित मग ब्राह्मणों ने  भारत में प्रवेश किया। उसके बाद ही उन्होंने कासाप्पुर ‘मुल्तान’ में पहली सूर्य प्रतिमा की स्थापना की। ए. एम. टी. जैक्सन के अनुसार मारवाड़ क्षेत्र स्थित भीनमाल में सूर्य देवता के प्रसिद्ध जगस्वामी मन्दिर का निर्माण काश्मीर के राजा कनक ‘सम्राट कनिष्क’ ने कराया था। सातवी शताब्दी में यही भीनमाल आधुनिक राजस्थान में विस्तृत ‘गुर्जर देश’ की राजधानी बना।  कनिष्क मिहिर और अतर ‘अग्नि’ के अतरिक्त कार्तिकेय, शिव तथा बुद्ध आदि भारतीय देवताओ का उपासक था| कनिष्क ने भारत में कार्तिकेय की पूजा को विशेष बढ़ावा दिया। कनिष्क के बेटे हुविष्क का चित्रण उसके सिक्को पर महासेन 'कार्तिकेय' के रूप में किया गया हैं|आधुनिक पंचाग में सूर्य षष्ठी एवं कार्तिकेय जयन्ती एक ही दिन पड़ती है| कोई चीज है प्रकृति में जिसने इन्हें एक साथ जोड़ा है-वह है सम्राट कनिष्क की आस्था। ‘सूर्य षष्ठी’ के दिन सूर्य उपासक सम्राट कनिष्क को भी याद किया जाना चाहिये और उन्हें भी श्रद्धांजलि दी जानी चाहिये।  

इसी क्रम में“शिव भक्त सम्राट मिहिरकुल हूण” की जयंती ‘सावन की शिव रात्रि’ पर मनाई जाती हैं| मिहिकुल हूण एक कट्टर शैव था|  मिहिरकुल को ग्वालियर अभिलेख में भी शिव भक्त कहा गया हैं| मिहिरकुल के सिक्कों पर जयतु वृष लिखा हैं जिसका अर्थ हैं- जय नंदी| वृष शिव कि सवारी हैं जिसका नाम नंदी हैं| उसने अपने शासन काल में अनेक शिव मंदिर बनवाये| मंदसोर अभिलेख के अनुसार यशोधर्मन से युद्ध होने से पूर्व उसने भगवान स्थाणु ‘शिव’ के अलावा किसी अन्य के सामने अपना सर नहीं झुकाया था| कल्हण कृत राजतरंगिणी के अनुसार उसने कश्मीर में मिहिरपुर नामक  नगर बसाया तथा श्रीनगर के पास मिहिरेशवर नामक भव्य शिव मंदिर बनवाया था| उसने गांधार इलाके में ब्राह्मणों को 1000 ग्राम दान में दिए थे| कल्हण मिहिरकुल हूण को ब्राह्मणों के समर्थक शिव भक्त के रूप में प्रस्तुत करता हैं| मिहिरकुल ही नहीं वरन सभी हूण शिव भक्त थे| हनोल ,जौनसार – बावर, उत्तराखंड में स्थित महासु देवता “महादेव” का मंदिर हूण स्थापत्य शैली का शानदार नमूना हैं, कहा जाता हैं कि इसे हूण भट ने बनवाया था| यहाँ यह उल्लेखनीय हैं कि भट का अर्थ योद्धा होता हैं | तोरमाण और मिहिरकुल के ‘अलखान हूण परिवार ’ के पतन के बाद हूणों के इतिहास के प्रमाण राजस्थान के हाडौती और मेवाड़ के पहाड़ी इलाको से प्राप्त होते हैं| पूर्व मध्य काल में कोटा-बूंदी का क्षेत्र हूण प्रदेश कहलाता था| ऐतिहासिक हूणों के प्रतिनिधि के तौर पर वर्तमान में इस क्षेत्र में हूण गुर्जर काफी संख्या में पाए जाते हैं| बूंदी इलाके में रामेश्वर महादेव,  भीमलत और झर महादेव हूणों के बनवाये प्रसिद्ध शिव मंदिर हैं|  बिजोलिया, चित्तोरगढ़ के समीप स्थित मैनाल कभी हूण राजा अन्गत्सी की राजधानी थी, जहा हूणों ने तिलस्वा महादेव का मंदिर बनवाया था| चंबल के निकट स्थित भैंसोरगढ़ से तीन मील की दूरी पर बाडोली का प्रसिद्ध प्राचीन शिव मंदिर हैं| मंदिर के आगे एक मंडप हैं जिसे लोग ‘हूण की चौरी’ कहते हैं| कर्नल टाड़ के अनुसार बडोली में स्थित सुप्रसिद्ध  शिव मंदिर के हूणराज ने बनवाया था|

भादो के शुक्ल पक्ष की तीज को वराह जयंती होती हैं| गुर्जर प्रतिहार सम्राट मिहिर भोज की उपाधि ‘आदि वराह’ थी, जोकि उसके सिक्को पर उत्कीर्ण थी|| अतः इस दिन मिहिर भोज को भी याद किया जाता हैं| ‘आदि वराह’ आदित्य वराह का संक्षिप्त रूप हैं| आदित्य सूर्य का पर्यायवाची हैं| इस प्रकार आदि वराह एक सूर्य से संबंधित देवता हैं| वराह और सूर्य के संयुक्तता  कुछ स्थानो और व्यक्तियों के नामो में भी दिखाई देती हैं, जैसे- उत्तर प्रदेश के बहराइच स्थान का नाम वराह और आदित्य शब्दों से वराह+आदित्य= वराहदिच्च/ वराहइच्/ बहराइच होकर बना हैं|कश्मीर में बारामूला नगर हैं, जोकि प्राचीन काल के वराह+मूल = वराहमूल का अपभ्रंश हैं| ‘मूल’ सूर्य का पर्याय्वाची हैं| भारतीय नक्षत्र विज्ञानी वराहमिहिर (505-587 ई.) के नाम में तो दोनों शब्द एक दम साफ़ तौर पर देखे जा सकते हैं| मिहिर का अर्थ भी सूर्य हैं| वराह को विष्णु का अवतार माना जाता हैं| वेदों में भगवान विष्णु भी सौर देवता हैं| विष्णु भगवान को सूर्य नारायण भी कहते हैं| ‘मिहिर’ और ‘आदि वराह’ दोनों ही गुर्जर प्रतिहार सम्राट मिहिर भोज की उपाधि हैं| अतः "मिहिर भोज जयंती" को “मिहिरोत्सव” के रूप में भी मना सकते हैं|

मिहिर शब्द का गुर्जरों के इतिहास के साथ गहरा सम्बंध हैं| हालाकि गुर्जर चौधरी, पधान ‘प्रधान’, आदि उपाधि धारण करते हैं, किन्तु ‘मिहिर’ गुर्जरों की विशेष उपाधि हैं| राजस्थान के अजमेर क्षेत्र और पंजाब में गुर्जर मिहिर उपाधि धारण करते हैं| मिहिर ‘सूर्य’ को कहते हैं| भारत में सर्व प्रथम सम्राट कनिष्क कोशानो ने ‘मिहिर’ देवता का चित्र और नाम अपने सिक्को पर उत्कीर्ण करवाया था| कनिष्क ‘मिहिर’ सूर्य का उपासक था| उपाधि के रूप में सम्राट मिहिर कुल हूण ने इसे धारण किया था| मिहिर कुल का वास्तविक नाम गुल था तथा मिहिर उसकी उपाधि थी| मिहिर गुल को ही मिहिर कुल लिखा गया हैं| कैम्पबैल आदि इतिहासकारों के अनुसार हूणों को मिहिर भी कहते थे| गुर्जर प्रतिहार सम्राट भोज महान ने भी मिहिर कुल की भाति मिहिर उपाधि धारण की थी| इसीलिए इतिहासकार इन्हें मिहिर भोज भी कहते हैं| संभवतः “गुर्जर प्रतिहारो की हूण विरासत” रही हैं| मिहिर उपाधि की परंपरा गुर्जरों की ऐतिहासिक विरासत को सजोये और संरक्षित रखे हुए हैं|

मशहूर पुरात्वेत्ता एलेग्जेंडर कनिंघम इतिहास प्रसिद्ध कुषाणों की पहचान आधुनिक गुर्जरों से की हैं| उनके अनुसार गुर्जरों का कसाना गोत्र कुषाणों का वर्तमान प्रतिनिधि हैं| उसकी बात का महत्व इस बात से और बढ़ जाता है कि गुर्जरों का कसाना गोत्र क्षेत्र विस्तार एवं संख्याबल की दृष्टि से सबसे बड़ा है। कसाना गौत्र अफगानिस्तान से महाराष्ट्र तक फैला है और भारत में केवल गुर्जर जाति में मिलता है। ऐतिहासिक तौर पर कनिष्क द्वारा स्थापित कुषाण साम्राज्य गुर्जर समुदाय का प्रतिनिधित्व करता हैं, क्योकि यह मध्य और दक्षिण एशिया के उन सभी देशो में फैला हुआ था, ज़हाँ आज गुर्जर निवास करते हैं| कुषाण साम्राज्य के अतरिक्त गुर्जरों से सम्बंधित कोई अन्य साम्राज्य नहीं हैं, जोकि पूरे दक्षिणी एशिया में फैले गुर्जर समुदाय का प्रतिनिधित्व करने के लिए अधिक उपयुक्त हो| यहाँ तक की मिहिर भोज द्वारा स्थापित प्रतिहार साम्राज्य केवल उत्तर भारत तक सीमित था, तथा पश्चिमिओत्तर में करनाल इसकी बाहरी सीमा थी| कनिष्क के साम्राज्य का एक अंतराष्ट्रीय महत्व हैं, दुनिया भर के इतिहासकार इसमें अकादमिक रूचि रखते हैं| सम्राट कनिष्क कोशानो 78 ई. में राजसिंघासन पर बैठा| अपने राज्य रोहण को यादगार बनाने के लिए उसने इस अवसर पर एक नवीन संवत चलाया, जिसे शक संवत कहते हैं| शक संवत भारत का राष्ट्रीय संवत हैं| “भारतीय राष्ट्रीय संवत- शक संवत” 22 मार्च को शुरू होता हैं| इस प्रकार 22 मार्च सम्राट कनिष्क के राज्य रोहण की वर्षगाठ हैं| दक्षिणी एशिया विशेष रूप से गुर्जरों के प्राचीन इतिहास में यह एक मात्र तिथि हैं जिसे अंतराष्ट्रीय रूप से प्रचलित जूलियन कलेंडर के अनुसार निश्चित किया जा सकता हैं| सम्राट कनिष्क के राज्य रोहण की वर्षगाठ के अवसर पर वर्ष 2013 से मनाया जाने वाला  “22 मार्च- इंटरनेशनल गुर्जर डे” आज देश-विदेश में बसे गुर्जरो के बीच एकता और भाईचारे से परिपूर्ण उत्सव का रूप ले चुका हैं|

सम्राट कनिष्क के सिक्के पर उत्कीर्ण पाया जाने वाला ‘राजसी चिन्ह’ जिसे ‘कनिष्क का तमगा’ भी कहते हैं, आज गुर्जर समुदाय की पहचान बन कर उनके वाहनों, स्मृति चिन्हों, घरो और उनके कपड़ो तक पर अपना स्थान ले चुका हैं| सम्राट कनिष्क का राजसी चिन्ह गुर्जर कौम की एकता, उसके गौरवशाली इतिहास और विरासत के प्रतीक के रूप में उभरा हैं| कनिष्क के तमगे में ऊपर की तरफ चार नुकीले काटे के आकार की रेखाए हैं तथा नीचे एक खुला हुआ गोला हैं| कुषाण सम्राट शिव के उपासक थे| कनिष्क के अनेक सिक्को पर शिव मृगछाल, त्रिशूल, डमरू और कमण्डल के साथ उत्कीर्ण हैं|  कनिष्क का राजसी निशान “शिव के त्रिशूल” और उनकी की सवारी “नंदी बैल के पैर के निशान” का समन्वित रूप हैं| सबसे पहले इस राज चिन्ह को कनिष्क के पिता सम्राट विम कड्फिस ने अपने सिक्को पर उत्कीर्ण कराया था| विम कड्फिस शिव का परम भक्त था तथा उसने माहेश्वर की उपाधि धारण की थी| उसने अपने सिक्को पर शिव और नंदी दोनों को उत्कीर्ण कराया था| यह राजसी चिन्ह कुषाण राजवंश और राजा दोनों का प्रतीक था तथा राजकार्य में मोहर के रूप में प्रयोग किया जाता था|

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