गुरुवार, 13 अप्रैल 2017

छत्रपति शिवाजी महाराज बैंसला गौत्र के गुर्जर थे

छत्रपति शिवाजी महाराज बैंसला गौत्र के गुर्जर थे

बचपन में पढ़ते समय हम सुना करते थे कि लौह पुरूष सरदार पटेल गुर्जर थे । बाद में इस सच्चाई को जानने के लिय कई प्रयास किए वो अन्त में यह जानने में सफलता प्राप्त हुई कि वे वास्तव में वीर जाति गुर्जर से ही थे। कुछ अरसे बाद 1979-80 में श्री स्वामी वरूणवेश जी द्वारा, स्व0 श्री रत्न लाल वर्मा द्वारा लिखित पुस्तक गुर्जर वीर मुझे दी गई पुस्तक पढ़ने पर पता चला कि भारतीय संस्कृति के रक्षक व हिन्दुत्व के प्रतीक माने जाने वाले वीर शिवाजी व राणा प्रताप गुर्जर वंश से संबंधित थे । प्रारम्भ में मुझे यह बातें अटपटी सी लगी । मैने स्व0 वर्मा जी से विस्तृत चर्चा की तो उन्होने राणा प्रताप की बात स्पष्ट कर दी तथा शिवाजी के बारें मंे कहा कि भौंसले गांव उत्तर भारत में गुर्जरों के प्रसिद्ध गौत्र बैंन्सले का ही बदला रूप है यह मान्यता मन में घर कर गई परन्तु पूर्णतः संतुष्ट नहीं हो पाया फिर शायद 1990-91 में मैं श्री राम सिंह प्रभाकर बान्दीकई (राजस्थान) के घर ठहरा था । मैं उनसे कुछ इतिहास सम्बन्धित चर्चाएं कर रहा था। प्रभाकर जी इतिहास सहित कई विषयों में एम0ए0 है। उन्होने चर्चा के दौरान मुझ को एक राजस्थानीय डिन्गल कहावत सुनाई जो गूढ़ रहस्य बतलाती है। मेरी धारणा बलवती हुई एक अगस्त 1992 में नई दिल्ली में भारतीय गुर्जर परिषद की ओर से श्री शिवचरण सिंह बेंसला तथा डा0 नौनिहाल सिंह का राज्य सभा सदस्य चुने जाने पर स्वागत समारोह आयोजित किया गया । उसमें मुख्य अतिथि भारतीय जनता पार्टी के तत्कालीन अध्यक्ष डा0 मुरलीमनोहर जोशी थे। सर्वप्रथम मेरा ही भाषण था मैने गुर्जर जाति इतिहास की चर्चा करते हुए जब यह बात कही कि छत्रपति शिवाजी व राणा प्रताप गुर्जरर वंश से थे । तो कई लोगों को मेरी बात बड़ी अजीब सी लगी। डा. जोशी ने मेरी बात को सहारा तो लगा दिया परन्तु अधिकांश लोग विश्वास नहीं कर रहे थे । कई ने बाद में मुझ से अनेक प्रश्न किए। मेरे पास सिवाय श्रभ् रत्न लाल वर्मा जी की पुस्तक के उल्लेख के अन्य कोई बात सबूत भी नहीं था। वर्मा जी स्वर्ग सिधार चुके थे । मैं अपनी बात पर अड़ा तो था परन्तु ठोस प्रमाणेां का मेरे पास अभाव था। 20 अगस्त 1992 के समाचार पत्रों में शिवाजी के परिवार से संबंधित एक बड़ा समाचार पत्र छपा जो सुप्रिम कोर्ट (उच्चतम न्यायालय) का निर्णय था। समाचार पढ़ते ही कई साथियों ने मुझे पत्र लिखे तथा वह कटिंग भी भेजी यह समाचार पहले ही मेरी हिम्मत और बन्ध गई । अब मैने और विश्वास के साथ अपनी बात कहनी आरंभ की । कुछ समय बाद एक विशिष्ठ खोजी सज्जन जो भारतीय की सेना से रिटायर्ड है श्री वेद प्रकाश वर्मा निवासी हरियाणा मेरे पास दो पुस्तकें लेकर आये । पुस्तकें मासिक पत्रिकाये थी । हिन्दु चेतना तथा सैनिक समाचार उनसे कुछ सामग्री मिली तो और बल बढा़ । फिर मैने और अधिक साहित्य खोजना आरम्भ किया तो निरन्तर सफलता मिलने लगी। अब मैं विश्वास के साथ वहां कुछ तथ्य प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहा हूॅं ।

प्रसिद्ध इतिहासकारों के अनुसार सन 1200ई0 तक भारत के एतिहासिक नक्शे पर राजूत नाम से कोई जाति नहीं थी। राजपूत नामक जाति का नाम मुस्लिक शासकों के समय सामने आया ।वास्तव में गुर्जरों के बड़े राज्यों का पतन अपने आपसी संधर्षो के कारण हो चुका था। अब छोटे-2 रजवाड़े रह गये थे । मुस्लिक शासकों ने इन रजवाड़ों को अपने साथ मिलाने का यत्न किया तो इनको व कुछ अन्य छोटी जातियों को मिला कर राजपूर नाम की जाति की घोषणा की इस प्रकार मुस्लिम शासकों के खिलाफ संधर्षरत गुर्जरों के मुकाबले में राजपूत नाम की जाति (जिसमें कुछ गुर्जरों के सामन्त कुछ उनकी दाती संतान तथा कुछ छोटी जातियां सम्मलित थी) खड़ी कर अपना संधर्ष वजन कम कर लिया फिर भी गुर्जरों के प्रमुखवंश अपने नाम को बरकरार रखते हुए अपने पूर्वजों की शान की रक्षा के लिये बराबर मुस्लिम व ब्रिटिश हकूमत से लड़ते रहे । जबकि अधिकाशं लोग किसी ना किसी लालच में राजपूत जाति / संघ में सम्मलित हो गए। स्वार्थी इतिहासकारों ने बाद में सभी हिन्दु राजाओं को राजपूत राजा कह कर ही लिखना आरंभ कर दिया । भारत में इतिहास लिखने की कोई विशेष परम्परा नहीं रही केवल महाभारत, रामायण में प्राचीन राजाओं का उल्लेख मिलता है। यहंा का अधिकतर इतिहास विदेशा इतिहासकारों या यात्रियों जिनमें अरबी, चीनी व अंग्रेंजी लेखक हैं ने ही अपने हिसाब से लिखा । हम अन्य बातों में विस्तार से ना जा कर अपने मुख्य उदेश्य की ओर आते हैं।

अधिकांश इतिहास लेखकों ने कर्नल टाड को आधार मानकर अधिकांश गुर्जर राजाओं को राजपूत लिखा परन्तु फिर भी कुछ इतिहासकारों ने अपनी निष्पक्षता का परिचय देकर सच्चाई लिखने का प्रयत्न किया । कर्नल टाड व अन्य लेखकों ने राणा प्रताप को राजपूत राजा लिखा है तथा राणा को गहलोत व सिसोदिया वंश से बताया है। इसी प्रकार मराठा शासकों के बारें में लिखने वाले प्रमुख इतिहासकानों यदुनाथ सरकार जेमस ग्राण्ट डफ, राजाराम व्यंकटेश नदकर्णी, रिचर्ड टम्पल आदि व सी0ए0 किनफैड आदि ने मराठों के बारें में लिखते हुए उनकी जाति विशेष का कहीं जिक्र नहीं किया इनमें कुछ लेखकों ने यह तो थोड़ा उल्लेख कर दिया कि ये लोग कहां से आए परन्तु यह नहीं बताया कि इनका मराठा नाम पड़ा कैसे। मराठा शब्द मरहठा का बदला रूप है उसकी समीक्षा कहीं नहीं मिलती है इस प्रसंग पर विचारने से पूर्व हम कुछ शब्दों की ओर इशारा करना चाहते हैं राम - जाति या समूह के मुखिया को राव कहते हैं जो राजा का सहयोग छोटा रजवाड़ा होता है उसके परिवार को सबल या यक्त कहते हैं।

सबल - इसकी परिभाषा उपर दी है। वैसे सबल शब्द फौज के कमांडर के लिय प्रयुक्त हुआ है।

सेना - इस शब्द का अर्थ सेनानी विशेषकर स्वतंत्रता सेनानी है।

राजकुमार - अपनी सजातीय रानी से उत्पन्न राजा के पुत्र को राजकुमार तथा पुत्री को राजकुमारी कहते हैं ज्येष्ठ पुत्र को युवराज तथा पुत्री को युवराजी।

जिस प्रकार नागरी से नागर, भाटी से भाटिया, तंवर से तोमर, कुषाण से कसाना, यूहेची से चेची, चावड़ा से चावला आदि शब्द क्षेत्रिय भाषा प्रभाव के कारण बने हैं। इसी प्रकार मायई या मावी से मवल शब्द बना है। मावल का अर्थ पश्चिम या र्सूास्त का, देश भी किया है। कनबी या कुनबी या कुल्फी कई जगह कुर्सी भी कहा गया है इस शब्द का अर्थ खेतीहर है। यह राजकुटुम्बी से बना शब्द माना गया है। राजा से महाराजा, राना से महाराना, रावल से महारावल शब्द विशेषण ’महा’ लगर कर बने है। उपरोक्त शब्दों की व्याख्या के बाद हहम अपने मूल उदेश्य की ओर आते हैं इनकी जहंा जरूरत पड़ेगी प्रयोग करेंगें । राव, रावल, राना मुख्यतः गुर्जरों के लिये ही प्रयुक्त हुये हैं।

सन 425 तक शक्तिशाली कुषाण गुर्जर साम्राज्य के पतन के बाद हूणों द्वारा संधर्ष का दबाब बढ़ने पर गुर्जर महारवाड़ व आबू पर्वत के चारों ओर आ कर बसे तथा यहंा के विस्तृत भूभाग पर अधिकार कर भिनमाल नगर को अपनी केन्द्रिय राजधानी बनायी। 425 से 475 ई0 तक गुर्जर अपने युवा नेता जनेन्द्र सम्राट यशोधर्मा के नेतृत्व में मजबूत रूप में संगठित हुये । यह चापवशी गुर्जर सम्राट जन तान्त्रिक स्वभाव का था क्योंकि यह किसी राजा का उत्तराधिकारी न होकर स्वंयमेव अपनी बुद्धि व बल से उभरा था। इस महान सम्राट ने गुर्जरों को संगठित करने व पुनः बसाने का सफल कार्य किया । 475 से 535 ई0 तक सम्राट यशोधर्म का सुदृढ़ शासन रहा । 535 से 580 तक सम्राट कर्ण, 580 से 626 तक सम्राट वर्णमान तथा 626 से 680 ई0 तक सम्राट व्याधमुख चापवंषी महान सम्राटों का शासन रहा। सम्राट यशोधर्मा के तरूण सेनापति भट्टार्क, जो सम्राट कनिष्ठ का वंशज था ने काठियावाड़ा विजय करके वल्लभीपुर या वल्लभी नगर को अपनी राजधानी बनाया । भट्टार्क के वशं का नाम मैत्रिक वंश पड़ा। सूर्य को मि. भी कहते हैं। अतः अपने कुषाण सूर्य वंश के कारण इस वंश का नाम मैत्रिक वश्ंा रखा । मैत्रिक पंश की बेंसला, बटार व गहलौत आदि उपशाखाएं/ गोत्र है। भट्टार्क के वंशज भी चापवंशी सम्राटों के वफादार सामन्त व सहयोगी रहे। वल्लभी नगर के शासकों को ’वल्लभ’ भी कहा गया । एक शासक ने 319 ई0में वल्लभ सम्वत भी चलाया था परन्तु प्रथम प्रसिद्ध शासक भट्टार्क ही था जिसने 455 से 476 ई0 तक राज्य किया । उसके बाद गुहासेन, धूसेन 2,3,4 शिलादित्य 1 से 7 तक ने वल्लभी नगर पर शासन किया । यह शहर भी भीनमाल की तरह ही धर्म व शिक्षा का प्रमुख केन्द्र बन गया था। शिदित्य 5 अरब अक्रान्ताओं से संधर्ष करते हुए मारा गया था। इसके बाद से गुर्जर प्रतिहार सम्राट नाग का सरंक्षण वल्लभी नरेशों को मिलता रहा परन्तु शीलादित्य 7 को प्रतिहार सम्राट देवराज द्वारा सही समय पर सहायता न मिल पाने के कारण वह अरबों के साथ संधर्ष में भाग गया इस प्रकार धर्म व संस्कृति का केन्द्र 770 ई0 में यह शहर पूर्णतः नष्ट हो गया । गुर्जर प्रतिहार सम्राटों ने अरबों को भगा दिया और वहंा अपने स्वमन्त नियुक्त कर दिये ।

अरबों के साथ जब शीलादित्य का संधर्ष जारी था तो उसकी रानी कमलावती (कहीं पुष्पावली नाम दिया है) अम्बीका देवी के मन्दिर गयी हुई थी। राजा मारा गया था तथा राजधानी तबाह हो गई थी। रानी को मार्ग में लौटते समय जब यह पता चला तो वह निराश हुयी । रानी गर्भवती थी। वह निराश हालत में बड़नगर एक लक्ष्मणावती नामक ब्राहमणी के साथ चली गई । वहां मयलगढ़ की एक गुफा में उसने एक बच्चे को जन्म दिया । गुफा में जन्म के कारण बच्चे का नाम गुहा पड़ा । वैसे उसका असली नाम केशवदित्य था। जग गुहा 2 वर्ष का था तो रानी ने बच्चे को ब्राहणीं को सौंप दिया और स्वयं सती हो गई । ईडर क्षेत्र जहंा बढ़नगर था जंगल क्षेत्र था वहंा के भीलों का राजा मान्डलिक था। ब्राहमणी द्वारा पालन पोषण हुआ और भीलों ने गुहा को बड़ा आदर किया । अपने राजा मान्डलिक के बाद गुहा को अपना नेता मान लिया। गुहा ने अपनी बहादुरी से आस पास के क्षेत्रों में मलाया तथा फिर बल्लभीपुर को दोबारा बसाया 4 पीड़ी तक ईडर पर राज्य किया । गुहा के वंशज गहलौत कहलाये । गुहा के पुत्र मृदुसेन और पौत्र स्वरग्रह आदि ने वल्लभी पर शासन किया। धू्रसेन 4 के बाद उसका पुत्र शीलादित्य 2 (जो क्षत्रिय रानी से था) गददी पर बैठा। उसके पु. नागदित्व की हत्या कर दी गई । ईडर की गददी पर कौहल नाम का व्यक्ति काबिज हो गया । नागेदित्य का पुत्र वाष्पा रावत (असली राम काल भेजा था) केवल चार वर्ष का था जब वल्लभीपुर को नष्ट किया गया । उसकी माता पुष्पावती उसे बचाकर नागेन्द्र नगर या नामदा (उदयपुर के पास) ले गई । वहंा उस का भाई क्षेत्रपाल मोरे या मोरी चितौड़ पर राज्य करता था। मोरे गुर्जरों का गोत्र है। राजा और धवज के वंशज मोरे कहलाते हैं। पुष्पावती ने अपने बेटे ने बाप्पा को चितौड़ भेज दिया । ने बाप्पा जवान हो गया और उसने अपने मैजिक वंशीयों और भीलों को इकटठा किया तथा ईडर को कोहले के वंशज कोलियों से मुक्त कराया । उसका मामा संतान हीन था। अतः उसके भरने के बाद चितौड़ का राज्य वाष्पा को मिल गया । गुर्जर प्रतिहार सम्राट नागभट्ट ने बाप्पा को मैत्रिक फोज का रावल कमान्डर नियुक्त कर दिया वह रावत खिताब बाद में चितौड़ के गहलौतों का स्थायी टाईटल बन गया । इस प्रकार मैत्रिक व भट्टार्क या गुहिलोत गुर्जर थे ।

मेवाड़ का इतिहास (1912 ई0)पुस्तक में हनुमन्त सिंह व पूर्ण सिंह वर्मा लिखता है कि बाप्पा के कूछ बेटे अपने प्रचीन पैतृक स्थान (दक्षिण काठियावाड़)में जा बसे । मारवाड़ में बसने वाले गहलौत पीप्रा गहलौत कहलाते थे । सम्वत 1247 में कर्ण सिंह राजा बने । सन 1331 में केश ब्रहमती या लक्ष्मण सिंह चितौड़ की गददी पर बैठे । उनके काका भीेमसेन को हमीर सिंह की पुत्री पदमिनी ब्याही थी। पदमियों का काका गोरा तथा गोरा का भतीजा बादल था। राणा लक्ष्मण सिंह के बेटों में से मोकन को गददी मिला। मोकल के सात बेटों में कुम्भा या कुम्भकर्ण (जन्म 1415) गददी पर बैठा। राणा कुम्भा के बाद उसका बड़ा बेटा उदा या उदय सिंह राजा बना । उदय के बाद उसका बड़ा बेटा रायमल 1974 में गददी पर बैठा । रावमल के तीन बेटे थे। जिनमें सांगा या संग्राम सिंह व पृथ्वीराज झांसी रानी से थे तथा जयमल दूसरी रानी से था। सांगर ने 1509 से 1530 तक राज्य किया । राना सांगा के बड़े बेटे रत्न सिंह ने 1530 से सं0 1542 तक राज्य किया। रत्न सिंह के बाद उसका भाई विक्रमा दित्य गद्दी पर बैठा । उसके बाद सं0 1572 में राना प्रताप गददी पर बैठा । जिसने सं0 1597 तक राज्य किया । राना प्रताप के 17 बेटो में से सबसे बड़े बेटे अमर सिंह ने सं0 1621 तक चितौड़ पर राज्य किया । श्री रघुवंशी ने सन 1912 तक के राजाओं की पूरी सूची पुस्तक में दी है। इसी के अनुसार सांगा के भाई पृथ्वीराज का ख्वास पुत्र बनवीर था।

मेवाड़ अन्डर महाराणा कुम्भा के लेखक डा. उपेन्द्रनाथ डे के अनुसार गहलौतो ने मेडापत (मेवाड़) का मरूस्थल में अपना राज्य कायम किया तथा बागड, चितौड़ व सिसोद को अपने कब्जे में लिया । महारावल जैतसिंह ने अपनी राजधानी नागदा से अघाता बदली और चितौड़ (चित्रकूट) पर कब्जा किया। उसके बाद उसका लड़का महारावल तेजसिंह गददी पर बैठा और सन 1270 तक राज्य किया । उसका बेटा समरसिंह सन 1302 तक महारावल रहा । समरसिंह के बेटे रत्नसिंह ने 1302-3 तक राज्य किया । भाओं के अनुसार महारावल रत्नसिंह की मृत्यु के बाद सीसोद के राणा लक्ष्मणसिंह ने चितौड़ का राज्य संभाला । रत्न सिंह के भाई महाराणा भवन सिंह ने खिलजी को हराया (रणपुर जैन मंदिर के शिलालेख के अनुसार)। कविराज श्यामल दास के अनुसार लक्ष्मण सिंह और उसका बेटा अरिसिंह लड़ाई में मारे गए । लक्ष्मण सिंह के छोटे लड़के अजय सिंह ने अरावली की पहाडि़यों में कैलवाड़ा में शरण ली । अजय सिंह के दो बेटे सज्जन सिंह और खेम सिंह हुए । ’ए हिस्टरी आफ दी मराठा पियुपिल’ के लेखको के अनुसार सज्जन सिंह के वंश में शाहजी भौंसले हुए इसके अनुसार मराठे लक्ष्मण सिंह के पौत्र सज्जन सिंह के वंशज है। उदयपुर परिवार से देवडाजी (काका जी) आपसी, झगड़े के कारण दक्षिण में जा बसे । वहंा वे उदयपुर के भौवावत के परिवार की वजह से भौंसले कहलाये । शिवाजी एण्ड दी सड़ज आफ दी मराठास’ के लेखकों के अनुसार महाराष्ट्र में शिवाजी के वंशज चितौड़ के सूर्यवंश से माने जाते हैं। इन्ही के अनुसार यह अब बीजापुर जिले के मुढौल कस्बे के राजा, जो घौरपढ़े कहे जाते हैं के पास फारसी में लिखी सनद से प्रमाणित है। मुढौल का वह परिवार और सतारा के छत्रपति, लक्ष्मण सिंह के पौत्र सज्जन सिंह के वंशज है। यह प्रमाणित हैसज्जन सिंह 1320 ई0 के लगभग चितौड़ से ईधर आये थे । उल्लाकद्वीन के भंयकर आक्रमण के बाद सज्जन सिंह और उसके भाई खेम सिंह तथा उसके वंशजों ने बहमनी राज्य की सेवा की तथा समय-2 पर जागीरें जीती। इस बारें में असली दस्तावेज अध्ययन के लिए उपलब्ध है। (देखें शिवाजी दी ग्रेट, वोल्यूम 1, पार्ट-1 डा0 बालकृष्ण द्वारा लिखित) लगभग 1470 ई0 में सज्जन सिंह के वंशजों कर्णसिंह (बड़ा)तथा शुभकृष्ण ने सम्पति का बटवारा कर लिया । इसमें मूढौल का दक्षिणी भाग कर्ण सिंह तथा उत्तरी भाग (दौलताबाद व पूना के बीच का ) शुभकृष्ण के हिस्से में आया । कर्णसिंह के मूढौल में रहने वाले वंशज घोरपड़े (घोरपड़ से बना) कहलाये । भालोजी भौंसले (शिवाजी के दादा) शुभकृष्ण की पांचवीं पीढ़ी में हुये (1320 से 1620)। सज्जन सिंह व मालोजी के बीच में 12 पीढ़ी है अन्य पंवार, मोरे व जाधव आदि भी अपने को क्षत्रिय वंश ही मानते हैं।

उपरोक्त वंशावली का संक्षेप मंे दिया विवरण वह स्पष्ट करता है कि शिवाजी चितौड़ के परिवार से संबंधित थे । चितौड़ का गल्होन वश स्पष्टतः गुर्जर वंश है । यह भी स्पष्ट है कि ये वल्लभीनगर के शासकों वंश के गुर्जरों में से है। उपर हमने यह भी लिखा है कि इसी मैत्रीक वंश की उपशाखायें बटार या भट्टार्क, बैंसले व गहलौत आदि हैं। यह बेैंसले ही स्थान परिवर्तन से भोंसले या भौंसले से बैंसले शब्द बन गया । जैसा उपर लिखा हैकि ’मरहठा’ नामकरण को किसी इतिहास लेखक ने स्पष्ट नहीं किया है। इसका स्पष्टीकरण राज्स्थान से परबलित डिंगल कहावत करती है। जो इस प्रकार है:-

घणे खटाणे केमरी, तोंगड़ भाण्डारेज

मरे न हटे बैंसले, कछवाये आमेर ।

इसमें गुर्जरों के चार गोवों खटाणा, तोंगड़, बेंसले व कछवाये की स्वभाव के अनुसार बात कही है। इसमें स्पष्ट संकेत हैं कि मर जाये पर पीछे न हटे ऐसे हैं बैंसीला ’मरहठा’ शब्द भी यही संकेत करता है कि मर कर ही हटें वह मरहठा कहलाता है। प्रसिद्ध इतिहासकार यदुनाथ सरकार ने स्पष्ट लिखा है कि महाराष्ट्र से बाहर हम भले कही पूरे प्रान्त के वासियों को माराठा कहें परन्तु महाराष्ट्र के अन्दर भोंसले या उनके परिवारों से संबंधित लोग ही मरहठे कहलाते हैं उन्होने यह भी स्पष्ट लिखा है कि शिवाजी की फौज में मुख्य रूप से लड़ाकू लोग भौंसले व मावल या भावले ही थे । मावल गुर्जरों का प्रसिद्ध गौत्र मावी या मवाई है। शिवाजी के सहयोगी बनवी भी अच्छी संख्या में थे । कनबी या कुल्मी या कुर्मी भी अपने आप को गुर्जर ही मानते थे (देखे संदर्भ गं्रथ) इस प्रकार स्पष्ट है कि शिवाजी के लड़ाका साथी अधिकाशं गुर्जर ही थे। शिवाजी के सेनापति श्री प्रताप राव गुर्जर तथा समुद्री सेना के चीफ श्री सिददो जी गुर्जर थ। अन्य भी अनेक पदों पर गुर्जर बन्धू ही थे ।

प्रसिद्ध लेखक तथा भारतीय मजदूर संघ के सम्पादक श्री दत्तोपन्त ठेन्गड़ी ने हिन्दु बनना पाक्षिक पत्रिका के 15 नवम्बर 1992 के अंक में शिवाजा को आत्म कल्याण का उपदेश समर्थ साहित्य में बताते हुए उल्लेख किया है। तीन दिवस समाधि लोमोन राजाश्री बैंसले होते । इसमें भी स्पष्ट रूप से बंसले लिखा है।

18 अगस्त 1992 में भारतीय उच्चतम न्यायालय नई दिल्ली में शिवाजी के वंशजों से सम्बन्धित एक निर्णय निमांकित प्रकार दिया है जो स्पष्टतः गुर्जर वंश का बताता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि गुर्जर वंश के दो हीरे छत्रपति शिवाजी व राणा प्रताप को अन्य लोगो ने राजपूत आदि कहकर जहंा उनकी प्रतिष्ठा को कम किया है वहीं गुर्जरों के इतिहास की चोरी कर उसको तोड़ मरोड़ कर पेश करने का प्रयत्न किया है। आशा है निष्पक्ष इतिहासकार सही तस्वीर भविष्य में पेश करेगें। अपनी बाल समाप्त करने से पूर्व पाठकों को एक रहस्य और खोलना चाहता हूॅं कि अग्रवाल समाज के अग्रणी महाराजा अग्रेसन वालुक्य गुर्जर वंशी पुलकेशिन के वंशज थे (देखें पंजाब केसरी जालन्धर 13-8-1990 में प्रकाशित चैधरी वृन्दावन कानूनगो महामंत्री अखिल भारतीय अग्रसेनवंश इतहास शोध संस्थान जींद) वह बात आचार्य रजनीश की वर्णव्यवस्था से मेल खाती है। यहंाहमने केवल शिवाजी के वेश के वास्तविक रूप को लिखा है कि वे गुर्जर था। उनके बारें में विशेष रूप से विस्तार से पुस्तकाकार में हमने अलग से दिया है।

सन्दर्भ ग्रन्थ:

1 मेवाड़ का इतिहास (1912 ई) कु हनुमन्तसिंह रघुवंशी व पूर्ण सिंह बर्मा शिवाजी (1958) डा. यंदुनाथ सरकार ।

2 मराठा साम्राज्य का उदय व अन्न 1966

Tej Singh Rao vs State Of Maharashtra on 19 August, 1992

Equivalent citations: 1993 AIR 1227, 1992 SCR (3) 929

Bench: K Singh

PETITIONER:

TEJ SINGH RAO

Vs.

RESPONDENT:

STATE OF MAHARASHTRA

DATE OF JUDGMENT19/08/1992

BENCH:

KULDIP SINGH (J)

BENCH:

KULDIP SINGH (J)

RAMASWAMY, K.

CITATION:

1993 AIR 1227 1992 SCR (3) 929

1992 SCC Supl. (2) 554 JT 1992 (4) 520 1992 SCALE (2)199

ACT:

Maharashtra Agricultural Land (Ceiling on Holdings) Act, 1961:

Section 12-Lands-Subject-matter of a grant made by former ruler of Princely State-Whether covered by sovereign legislative grant flowing from a sovereign authority-Whether unaffected by Act of Legislature.

HEADNOTE:

The appellant, a lineal male descendant of one of the Generals of a former ruler was holding 294.61 acres of land, which was the subject-matter of a grant made by the former ruler at the time of his daughter's marriage. The appellant filed return under Section 12 of the Maharashtra Agricultural Lands (Ceiling on Holdings) Act, 1961 without prejudice to his claim that the lands were covered by a sovereign legislative grant flowing from the sovereign authority of the ruler of the erstwhile princely State, and as such did not come within the purview of the Act. The Special Deputy Collector (Land Reforms) declared 176.91 acres of the land as surplus. The land owner preferred appeal before the State Revenue Tribunal under Section 33 of the Act. The Tribunal dismissed the appeal. The appellant challenged the order of the Special Deputy Collector and of the Tribunal before the High Court. The High Court also dismised the writ petition. Hence the appeal, by special leave.

On behalf of the appellant, it was contended that the grant in question was sovereign legislative grant made by a sovereign ruler; it was recognised and continued by the British Government; it was thus a special law in favour of General's family, and as this law was existing on the date of the commencement of the Constitution of India, it was protected by Article 372 of the Constitution and should be deemed to be in force and could not be abrogated except by an Act of the legislature specially made in that respect. Dismissing the appeal, by Special Leave, this Court HELD : The High Court was right in holding that even in the case of a ruler who combined in himself both executive and legislative powers of his Government and was undisputed head of the State, the jurisprudential distinction between legislative enactment and executive action had not been obliterated and the question, whether a particular grant was a legislative grant or not, depended on the facts and circumstances of each case, and that the grant in question was a gift pure and simple and was not a legislative Act on the part of the ruler. [934G, 932B-D] Umad Mills Ltd. v. U.O.I. AIR 1963 S.C.953; State of Gujarat v. Vora Fidda Ali, AIR 1964 S.C.1043; Raj Kumar v. State of Orissa, AIR 1964 S.C. 1793; Union of India v. Gwalior Rayon Silk Manufacturing Company, AIR 1964 S.C. 1903 and State of Madhya Pradesh v. Lal Bhargavendra Singh, AIR 1966 S.C. 704, referred to.

JUDGMENT:

CIVIL APPELLATE JURISDICTION : Civil Appeal No. 608 of 1982.

From the Judgment and Order dated 4/5.12.1979 of the Bombay High Court in S.C.A. No. 1252 of 1970. T.S. Krishnamurthy Iyer, Ranjit Kumar, D.K. Dubey, S.V. Nand, V. Balakrishna and Mrs. P.P. Mange for the Appellant. R.B. Masodkar and A.S. Bhasme for the Respondent. The Judgment of the Court was delivered by KULDIP SINGH, J. Tej Singh Rao is a lineal male descendant of Pratap Rao Gujar who was one of the Generals of Shivaji the Great. He is holding 294.61 acres of land which is situated in the Bhiwapur Taluk of the erstwhile Nagpur State. He filed return under Section 12 of the Maharashtra Agricultural Lands (ceiling on holdings) Act, 1961 (the Act) without prejudice to his claim that the lands are covered by a sovereign legislative grant flowing from the sovereign authority of Raghoji II, the Bhonsle Ruler of Nagpur State, and as such did not come within the purview of the Act. The Special Deputy Collector (Land reforms) declared 176.91 acres of the land as surplus. The land owner preferred appeal before the Maharashtra Revenue Tribunal under Section 33 of the Act. The Tribunal dismissed the appeal. Tej Singh Rao challenged the order of the Special Deputy Collector and of the Tribunal before the Nagpur Bench of Bombay High Court by way of writ petition under Article 226/227 of the 931 Constitution of India. The High Court dismissed the writ petition with costs. This appeal by Tej Singh Rao by way of special leave petition is against the judgment of he High Court.

The lands in question were subject-matter of the grant which was made in the year1793 by Raghoji II, the then ruler of Nagpur State, at the time of marriage of his daughter Banubai to Vyankatrao alias Nanasaheb, son of Ramrao, a male descendant of Pratap Rao Gujar. As both Vyankatrao and Banubai were minor, the grant was made in the name of Ramrao. All villages in Bhiwapur Taluq and six villages in other Taluqs and annual cash allowance of Rs. 17,415 were the subject matter of the grant.

Raghuji II died in the year 1816. It is not necessary for us to trace the history of Bhonsle family and Gujar family as the same is not relevant for deciding the question which has survived for our consideration. The orders of the Special Deputy Collector and of the Maharashtra Revenue Tribunal were challenged before the High Court on two grounds. The first was that the appellant being the direct descendant of a sovereign ruler, the lands held by him for his personal use could not be the subject- matter of ceiling laws. The second ground was that the grant in question was a sovereign legislative grant made by Raghuji II, who was then the full sovereign ruler of Nagpur State and the said grant constituted a special Law in favour of Gujar family which could not be affected by any general legislation like the Act.

The High Court decided both the points against the appellant. The learned counsel appearing for the appellant has not challenged before us the findings of the High Court on the first point. The only question raised by the learned counsel before us is that the grant in question was sovereign legislative grant made by a sovereign ruler, it was recognised and continued by the British Government, it is thus a special law in favour of Gujar family, and as this law was existing on the date of the commencement of the Constitution of India it is protected by Article 372 of the Constitution and shall be deemed to be in force be abrogated except by an Act of the legislature specially made in that respect.

The question whether a grant made by a sovereign ruler amounts to 932 law and if so under what circumstances, was examined by the High Court at length. The High Court referred to the decisions of this Court in Umad Mills Ltd. v. U.O.I., AIR 1963 S.C.953; State of Gujarat v. Vora Fidda Ali, AIR 1964 S.C.1043; Raj Kumar v. State of Orissa, AIR 1964 S.C.1793; Union of India v. Gwalior Reins Silk Manufacturing Company, AIR 1964 S.C.1903 and State of Madhya Pradesh v. Lal Bhargavendra Singh, AIR 1966 S.C.704 and came to the conclusion that even in the case of a ruler who combined in himself both executive and legislative powers of his government and was undisputed head of the state, the jurisprudential distinction between legislative enactment and executive action has not been obliterated and the question, whether a particular grant is a legislative grant or not, depends on the facts and circumstances of each case. The High Court examined the evidence on the record in detail and finally came to the conclusion that the grant in question was a gift pure and simple and was not a legislative Act on the part of the ruler. The High Court reasoning is as under :

"So far as the grant in question is concerned, the exact manner in which the grant was conferred, the procedure followed for that purpose and the exact words in which it was couched are not known and cannot be ascertained from the material on records...............The only evidence about the grant is the entries in the settlement register, styled as Register of Maufi Holdings for the years 1866-1894 and 1913-14. The entries in the registers of Maufi Holdings of the year 1866 show that the grant was made by Raghuji II in 1783 in favour of Ramrao Gujar. In Column No. 10 detailed account of the State and terms of occupancy is given as follows:

`Original grantee Ramrao, the father-in-Law of Bannobai, the

daughter of Raghuji II from whom it

descended, to her husband, than

Banubaie's own son having been

adopted by Prusoji Bhonsla as heir

to the throne, she adopted her

grandson Chitkojirao as her heir,

he then came into possession of all

the villages forming the Taluq

Bhiwapur and has held them ever

since.' 933

The remarks made by the Investigation Officer with whom the Settlement Commissioner concurred finds place in column 12 of the register and they read as follows:

`Old record show that in 1203,

Fausli A.D. 1793, this village with

several villages forming the talooka

of Bhiwapur were granted to grantee

and that they have been held in the

family eversince. The grantee holds

in addition to this talooks, the

Mokassa village of Kodamendhi and

Kundala in the Ramtek Tahsil and the

Mukta villages of Deolee Bhamdalee,

Peethechha its Dakhilee and Peepra

in the Nagpur Tahseelee and receives

besides a cash allowance of Rs.

17,415 per annum. The grant is for

support of a member of the ruling

family, and I recommend that this

village be continued revenue free in

perpetuity to present holder and his

heirs.'

Entries in Maufi register for the years 1894-95 are practically the same. The entries in Maufi register of 1913-14 are also not very much different, except that in the entry for the year 1866, it is mentioned that the grant was for support of a member of the ruling family, while in the entries of later years the grant is considered to be for the support of the ruling family. It will also be seen from all these entries that the proposal that the grant should be continued in perpetuity revenue free to the claimant and his awful heirs was accepted by the Settlement Commissioner and the Chief Commissioner. There is nothing in these entries to suggest that it was a legislative grant. It was a gift pure and simple made by Raghuji II at the time of his daughter's marriages. It was made in the name of Ramrao because both Banubai and her husband were minors. Relying on the letter dated 16.12.1867 from the India Office, London, to the Governor General, it was sought to be urged on behalf of the petitioner that a fresh grant was made by her Majesty's Government, in exercise of its legislative function, in favour of Chitkojirao Gujar in respect of the subject-matter of the grant of 1793. The letter reads as follows: `Having considered in Council your

Excellency's letter of the 23rd of

May No. 94-A, Foreign Department

(Political) with the enclosed

correspondence. I have much

satisfaction in recommending to

you the sanction of her Majesty's

Government to the recommendation of

your Excellency in Council in favour

of the proposed Grant to Chitkojirao

Babasahib Gujar, of the Bhosla

Family of Nagpur and its continuance

to his adopted son Kooshanjee and

his lineal male issues in each

generation as an act of special

indulgence.'

There is nothing in this letter to show that a fresh grant was made in respect of the subject- matter of grant of 1793 or that the said grant was allowed to be continued. Except this letter no other record is available to the petitioner to establish the connection of the proposed grant sanctioned by His Majesty's Government and the grant in question. Moreover, there is nothing in this letter to indicate that the sanction to the proposed grant was accorded by her Majesty's Government in exercise of her legislative functions. There is no enactment of the British Parliament sanctioning the said grant. It is, therefore, difficult to accepted the contention that the grant in question was a sovereign legislative grant and that it was an existing law as defined by Article 366 (10) of the Constitution, which continued to be operative till this date by virtue of Article 372(1) of the Constitution." We find no infirmity in the High Court judgment. We agree with the reasoning and the conclusions reached therein.

The appeal is dismissed with costs.

http://indiankanoon.org/doc/21602/.

                               डॉ. जय सिंह गुर्जर
                       (संरक्षक : भारतीय गुर्जर परिषद)
                   (सम्पादक: गुर्जर गौरव मासिक पत्रिका)
                                मो. 9416990012