बुधवार, 20 दिसंबर 2017

गुर्जर-प्रतिहार वंश के महान हिन्दू धर्म रक्षक सम्राट मिहिर भोज की कहानी


मिहिर का अर्थ सूर्य होता है और सच्चे अर्थों में सम्राट मिहिर भोज भारत में अपने समय के सूर्य थें।उत्तर भारत में प्रसिद्ध एक लोकोक्ति उनकी विरासत को चरितार्थ करती है,लोकोक्ति है “कहाँ राजा भोज कहाँ गंगू तेली”।एक महान योद्धा,कुशल घुड़सवार होने के साथ उन्हें विद्वानों ने उनकी विद्वता के लिए “कविराज” की उपाधि भी दी थी।गुर्जर-प्रतिहार के मुलपुरुष प्रभु श्रीराम के छोटे भाई लक्ष्मण को माना जाता है।इस हिसाब से आज के उत्तर भारत में पाये जाने वाली गुर्जर जाति का सम्बन्ध क्षत्रिय कूल से है,उनके वंश की लगभग 500 वर्ष की शाषण काल भी इस बात की घोतक है।नागभट्ट प्रथम से लेकर गुर्जर-प्रतिहार के अंतिम शाषक तक अरब आक्रमणकारियों से लड़ते रहें लेकिन उनमे लगातार 50 वर्षों तक युद्ध में अरबों के छक्के छुड़ाने वाले मिहिर भोज की कहानी बेमिशाल और अद्वितीय है। ईस्वी सन् (712-1192) के बिच लगभग 500 वर्षों तक गुर्जर-प्रतिहार वंश ने अनेक युद्ध में बाहरी आक्रमणकारियों को हराया।उनके कमजोर होने के बाद ही महमूद गजनवी और मुहम्मद गोरी ने भारत के तरफ मुहीम की शुरुआत की।आज भारत की सनातन संस्कृति के वे सबसे बड़े ध्वज वाहक हैं।कुछ देर पढ़िए आपको सब समझ आ जाएगा की कैसे?

मिहिर भोज का साम्राज्य पश्चिम में सिंधु नदी से पूरब में बंगाल तक तथा उत्तर में कश्मीर से लेकर दक्षिण में गोदावरी नदी तक फैला हुआ अत्यन्त विशाल और समृद्ध क्षेत्र था।

मिहिर भोज विष्णु और शिव भगवान के भक्त थे तथा कुछ सिक्कों मे इन्हे ‘आदिवराह’ भी माना गया है।वराह(जंगली सूअर) के उपाधि के पीछे की कहानी यह है की जिस तरह से भगवान विष्णु ने वराह अवतार लेकर हिरण्याक्ष से इस भूमि का रक्षा किया था उसी तरह इस भूमि की रक्षा मिहिर भोज ने की थी। महरौली नामक जगह इनके नाम पर रखी गयी थी तथा राष्ट्रीय राजमार्ग 24 का बड़ा भाग सम्राट मिहिरभोज मार्ग के नाम से जाना जाता है।

गुर्जर सम्राट मिहिर भोज का शाषण काल 836 ईसवीं से 885 ईसवीं तक माना जाता है।यानी लगभग 50 वर्ष।सम्राट भोज के साम्राज्य को तब गुर्जर देश के नाम से जाना जाता था।

प्रसिद्द अरब यात्री सुलेमान ने भारत भ्रमण के दौरान लिखी पुस्तक सिलसिलीउत तुआरीख 851 ईस्वीं में सम्राट मिहिर भोज को इस्लाम का सबसे बड़ा शत्रु बताया है , साथ ही मिहिर भोज की महान सेना की तारीफ भी की है।जो इनकी हिन्दू धर्म की रक्षा में इनकी भूमिका बताने के लिए काफी है।

915 ईस्वीं में भारत आए बगदाद के इतिहासकार अल- मसूदी ने अपनी किताब मरूजुल महान मेें भी मिहिर भोज की 8 लाख पैदल सैनिक और हज़ारों हाथी और हज़ारों घोड़ों से सज्जी इनके पराक्रमी सेना के बारे में लिखा है।इनकी राजशाही का निशान दांत निकाले चिंघाड़ता हुआ “वराह”(जंगली सूअर) था और ऐसा कहा जाता है की मुस्लिम आक्रमणकारियों के मन में इतनी भय थी कि वे वराह यानि जंगली सूअर से नफरत करने लगे थें। मिहिर भोज की सेना में सभी वर्ग एवं जातियों के लोगो ने राष्ट्र की रक्षा के लिए हथियार उठाये और इस्लामिक आक्रान्ताओं से लड़ाईयाँ लड़ी।

सम्राट मिहिर भोज के उस समय स्थानीय शत्रुओं में बंगाल के पालवंशी
और दक्षिण का राष्ट्रकूट(यादव कूल) थें,इसके अलावे बाहरी शत्रुओं में अरब के खलीफा मौतसिम वासिक, मुत्वक्कल, मुन्तशिर, मौतमिदादी थे । अरब के खलीफा ने इमरान बिन मूसा को सिन्ध के उस इलाके पर शासक नियुक्त किया था। जिस पर अरबों का अधिकार रह गया था। सम्राट मिहिर भोज ने बंगाल के राजा देवपाल के पुत्र नारायणलाल को युद्ध में परास्त करके उत्तरी बंगाल को अपने साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया था। दक्षिण के राष्ट्र कूट राजा अमोधवर्ष को पराजित करके उनके क्षेत्र अपने साम्राज्य में मिला लिये थे । सिन्ध के अरब शासक इमरान बिन मूसा को पूरी तरह पराजित करके समस्त सिन्ध को गुर्जर-प्रतिहार साम्राज्य का अभिन्न अंग बना लिया था। केवल मंसूरा और मुलतान दो स्थान अरबों के पास सिन्ध में इसलिए रह गए थे कि अरबों ने गुर्जर सम्राट के तूफानी भयंकर आक्रमणों से बचने के लिए अनमहफूज नामक गुफाए बनवाई हुई थी जिनमें छिप कर अरब अपनी जान बचाते थे।सम्राट मिहिर भोज नहीं चाहते थे कि अरब इन दो स्थानों पर भी सुरक्षित रहें और आगे संकट का कारण बने इसलिए उन्होंने कई बड़े सैनिक अभियान भेज कर इमरान बिन मूसा के अनमहफूज नामक जगह को जीत कर गुर्जर साम्राज्य की पश्चिमी सीमाएं सिन्ध नदी से सैंकड़ों मील पश्चिम तक पंहुचा दी और इस प्रकार भारत देश को अगली शताब्दियों तक अरबों के बर्बर, धर्मान्ध तथा अत्याचारी आक्रमणों से सुरक्षित कर दिया था।

साहस,शौर्य,पराक्रम वीरता और संस्कृति के रक्षक सम्राट मिहिर भोज जीवन के अंतिम वर्षों में 50 वर्ष तक राज्य करने के पश्चात हिन्दू धर्म के सन्यास परम्परा के अनुसार अपने बेटे महेंद्र पाल को राज सिंहासन सौंपकर सन्यासवृति के लिए वन में चले गए थे।

किसी कवि ने उनके बारे में निम्न पंक्तियाँ लिखी है।

“दो तरफ समुद्र एक तरफ हिमालय,
चौथी ओर स्वयं वीर गुर्जर-प्रतिहार थें,
हर बार हर युध्द में अरबों का हराया,
प्रतिहार मिहिर भोज ऐसे प्रहार थें”

– लेखक – राजन भारद्वाज अग्निवीर

मंगलवार, 19 दिसंबर 2017

गुर्जर प्रतीक चिन्ह - गुर्जर सम्राट कनिष्क का शाही निशान

गुर्जर प्रतीक चिन्ह - सम्राट कनिष्क का शाही निशान

Gurjar / Gujjar Logo- The Royal Insignia of Kanishka

डॉ सुशील भाटी

सम्राट कनिष्क के सिक्के पर उत्कीर्ण पाया जाने वाला ‘राजसी चिन्ह’ को ‘कनिष्क का तमगा’ भी कहते हैं| कनिष्क के तमगे में ऊपर की तरफ चार नुकीले काटे के आकार की रेखाए हैं तथा नीचे एक खुला हुआ गोला हैं| कनिष्क का राजसी निशान “शिव के त्रिशूल” और उनकी की सवारी “नंदी बैल के पैर के निशान” का समन्वित रूप हैं| सबसे पहले इस राज चिन्ह को कनिष्क के पिता सम्राट विम कड्फिस ने अपने सिक्को पर उत्कीर्ण कराया था| विम कड्फिस शिव का परम भक्त था तथा उसने माहेश्वर की उपाधि धारण की थी| यह राजसी चिन्ह कुषाण राजवंश और राजा दोनों का प्रतीक था तथा राजकार्य में मोहर के रूप में प्रयोग किया जाता था| 

मशहूर पुरात्वेत्ता एलेग्जेंडर कनिंघम इतिहास प्रसिद्ध कुषाणों की पहचान आधुनिक गुर्जरों से की हैं| उनके अनुसार गुर्जरों का कसाना गोत्र कुषाणों का वर्तमान प्रतिनिधि हैं|

सम्राट कनिष्क का ‘राजसी चिन्ह’ गुर्जर कौम की एकता, उसके गौरवशाली इतिहास और विरासत का प्रतीक हैं| ऐतिहासिक तौर पर कनिष्क द्वारा स्थापित कुषाण साम्राज्य गुर्जर समुदाय का प्रतिनिधित्व करता हैं, क्योकि यह मध्य और दक्षिण एशिया के उन सभी देशो में फैला हुआ था, ज़हाँ आज गुर्जर निवास करते हैं| कुषाण साम्राज्य के अतरिक्त गुर्जरों से सम्बंधित कोई अन्य साम्राज्य नहीं हैं, जोकि पूरे दक्षिणी एशिया में फैले गुर्जर समुदाय का प्रतिनिधित्व करने के लिए अधिक उपयुक्त हो| यहाँ तक की मिहिर भोज द्वारा स्थापित प्रतिहार साम्राज्य केवल उत्तर भारत तक सीमित था, तथा पश्चिमिओत्तर में करनाल इसकी बाहरी सीमा थी| 

कनिष्क के साम्राज्य का एक अंतराष्ट्रीय महत्व हैं, दुनिया भर के इतिहासकार इसमें अकादमिक रूचि रखते हैं|