बुधवार, 25 अप्रैल 2018

पढ़िए बकरवाल कौन है ?

Who are Gujjar-Bakarwals ?
बकरवाल कौन है ? 

By - नारायण बारेठ (वरिष्ठ पत्रकार) जयपुर

कोई शिकस्त उन्हें वादी ए  कश्मीर तक  ले गई
कश्मीर में तीन नस्लीय समूह है -कश्मीरी ,डोगरी और गुज्जर
लेकिन वे जो जबान बोलते है वो न कश्मीरी से मिलती है न डोगरी के करीब है।
जम्मू -कश्मीर में गुज्जर और बकरवाल गोजरी भाषा बोलते है। यह राजस्थानी के निकट है।
जम्मू में शौकत जावेद गुज्जर बिरादरी से है। वे आवाज ए गुज्जर पत्रिका के सम्पादक भी रहे है। वे कहते है ' गुज्जर और बकरवाल जंग हारने के बाद इस इलाके में आ गए।उनकी भाषा में राजस्थानी जबान का प्रभाव है।
जम्मू कश्मीर में कोई दस बारह लाख गुज्जर है। बकरवाल भी गुज्जर है। चूँकि वे सदियों से बकरी पालन कर जीवन बसर करते है। इसलिए उन्हें बकरवाल कहा जाता है। गुजरो और बकरवालो में परस्पर शादिया होती है।जावेद कहते है 'आपको उनमे वो सब सर नेम मिलेंगे जो राजस्थान के गुजरो में मिलते है।
गौर वर्ण ,लम्बी कद काठी ,मजबूत देह और अमन पसंदी उनकी पहचान है। जावेद बताते है आपको कोई भी बकरवाल छह फुट से कम नहीं मिलेगा।वे डेरो में रहते है। कुछ डेरे पक्के है ,कुछ कच्चे। जम्मू क्षेत्र में कच्चे डेरे है। लेकिन कश्मीर में अब डेरे पके हो गए है।जावेद के मुताबिक गुज्जरो की आबादी में बकरवालो की संख्या तीन चार लाख होगी।
वादी में मौसमें  सर्दा आते है बकरवाल अपने माल मवेशियों के साथ जम्मू इलाके में आ जाते है। फिर जैसे ही गर्मी आती है ,कारवां  वादी ए कश्मीर में दाखिल हो जाता है। जावेद बताते है जब बकरवाल एक इलाके से दुसरे इलाके का रुख करते है ,पहले एक अग्रिम दस्ता आगे पहुंचता और अस्थाई डेरा बनाता है। पीछे पीछे बकरवाल मवेशी के साथ दूसरे दल में पहुंचते है। उनका अपना कम्युनिकेशन सिस्टम है। शौकत जावेद के अनुसार ,वे खास तरह की शीटी से आवाज निकालते है।उनके जानवर बकरवालो के इशारे समझते है।
जावेद कहते है अब इनमे पढ़ाई लिखाई का चलन बढ़ा है।गुज्जर बिरादरी की दो के करीब लड़किया डॉक्टर बन गई है। इनमे पंद्रह बीस बकरवाल भी है। जम्मू और कश्मीर में एक बालिका हॉस्टल है। उनमे बकरवाल लड़किया पढ़ रही है। सूबे के 22 जिलों में हॉस्टल है। इनमे छात्र रहते है और पढ़ते है। खर्च सरकार वहन करती है। बकरवालो में कुछ पढ़ लिख कर अफसर बन गए है। लेकिन बहुतायत अब भी मवेशी पालन करती है।उनके साथ बकरिया है ,भेड़े है और घोड़े भी है। पर बकरियों का बाहुल्य है। इसीलिए बकरवाल हो गए। कुछ नमक का कारोबार करते थे ,वे लूणवाल हो गए।
स्वभाव में कैसे है ?जावेद बताने लगे 'शांति प्रिय लोग है। आप देखलो जिस बच्ची आसिफा  के साथ ज्यादती हुई है ,उसके परिवार वालो ने इतना ही कहा उन्हें अल्लाह देखेंगे। और वे अपने माल मवेशी के साथ आगे बढ़ गए। अब मीडिया वाले उन्हें खोज रहे है।
राजस्थान में गुज्जर आंदोलन ने सक्रिय रहे डॉ रूप सिंह कहते है ' मुगल काल में ये लोग दमन का शिकार हुए और पहाड़ो में चले गए।उनकी आस्था  में इस्लाम है। मगर उनके जाति  उप नाम वही है जो राजस्थान में गुजरो के है। डॉ सिंह कहते है -जम्मू कश्मीर में गुज्जर और बकरवाल वतनपरस्ती में हमेशा आगे रहे है। जब कारगिल में घुसपैठ हुई ,एक बकरवाल ने ही सुरक्षा कर्मियों को सूचना दी। ऐसे ही 1971 में माला गुज्जर ने वतन के लिए शहादत दी।

डॉ सिंह के मुताबिक - माली गुज्जर के अलावा 1965 की लड़ाई में एक गुज्जर महिला जाउनी को भारत ने अपने तमगो से सम्मानित किया।इसके साथ मोहंदीदन और गुलाब्दीन को पदम् पुरस्कारों से नवाजा गया ।               
उस क्षेत्र में गुज्जर समुदाय के लिए  जम्मू में गुज्जर देश चेरिटेबल ट्रस्ट बहुत काम कर रहा है।इसमें गुजर बिरादरी के प्रमुख लोग जुड़े हुए है। वे इतिहास संकलन से लेकर समुदाय की तरक्की के लिए काम करते है।अलग अलग इलाको में रहे रहे अपने समुदाय के लोगो को परस्पर जोड़ा है।
राजस्थान में जब गुज्जर समुदाय आरक्षण की मांग को लेकर सड़को पर आया और हिंसा हुई तो जम्मू कश्मीर के गुज्जर नेता भी चिंतित हुए।इनमे जम्मू के पूर्व उप कुलपति  मसूद चौधरी भी शामिल थे /उन्होंने  जयपुर में सरकार से हुई बातचीत में अपनी बिरादरी की नुमाइंदगी की  । वे  गुज्जर बिरादरी के पहले व्यक्ति थे जो अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक पद तक पहुंचे।बाद में जब राजौरी में बाबा गुलाम शाह बादशाह यूनिवर्सिटी स्थापित हुई तो वे उसके संस्थापक कुलपति बने।     
सादर
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रविवार, 15 अप्रैल 2018

वरिष्ठ पत्रकार नारायण बारेठ की कलम से म्हारो थारो के हुयो!

म्हारो थारो के हुयो !

(जयपुर)
नारायण बारेठ राजस्थान के मशहूर पत्रकार की कलम से

ये जम्मू कश्मीर में उस जबान का हिस्सा है जो गूजर- बकरवाल बोलते है।कश्मीर में चौधरी मसूद उस  गूजर समुदाय के पहले ग्रेजुएट है। वे पुलिस सेवा में एडिशनल डी जी पद तक  पहुंचे और फिर राजौरी में एक यूनिवर्सिटी के संस्थापक कुलपति भी रहे।कहने लगे 'गूजर रोजमर्रा में म्हारो थारो जैसे शब्द खूब बोलते है। क्योंकि गुजरी भाषा राजस्थानी के करीब है।
कश्मीर  में ऐसे तत्वों को कोई कमी नहीं है जो किसी बात पर सरहद के उस पार देखते है। लेकिन बकरवाल गूजर जब भी कोई दुःख तकलीफ आती है ,दिल्ली की तरफ देखते है। उनके डेरे सरहद के  आस पास है। कई बार दहशगर्दों ने उनके डेरे  तोड़फोड़ दिए और नुकसान पहुंचाया।
भारत की विविधता उसकी ताकत है।कही भाषा ,कही लिबास ,कही खान पान ,कही आस्था और कही परम्पराये एक दूजे को जोड़ती है।कुछ लोग परस्पर जोड़ने के जरिये ढूंढ कर सुकून महसूस करते है ,कुछ लोग तोड़ने के बहाने  तलाशते रहते है।फासले बढ़ाने से बढ़ते है ,घटाने से घटते है।
चौधरी मसूद कहते है -कहीं वे बनहार है ,कही बन गुजर है ,कही बकरवाल है। मगर हं सब एक ही। ये पहाड़ो में है तो ,मैदानों में भी।कोई काश्त कार है ,कोई पशुपालक।
भारत में ब्रिटिश दौर में जॉर्ज अब्राहिम ग्रियर्सन  इंडियन सिविल सर्विस के कर्मचारी के रूप में भारत आये। उन्होंने भारत में भाषाओ पर बहुत काम किया। उन्हें  लिंग्विस्टिक सर्वे ऑव इंडिया" का प्रेणता माना जाता है।  उन्होंने ने गुजरी भाषा  को राजस्थानी बोली बताया और कहा ये मेवाती के करीब है और मेवाड़ी से भी मिलती जुलती है।  गुजरी जबान उर्दू प्रभाव वाले क्षेत्रो में बोली जाती है और इसमें प्रभाव क्षेत्र में बड़ा पहाड़ी इलाका है। इस जबान का पूँछी ,पंजाबी ,कश्मीरी और डोगरी पर भी प्रभाव है।जम्मू कश्मीर में कश्मीरी और डोगरी के बाद यह सबसे ज्यादा बोले जाने वाली भाषा है।
इटालियन विद्वान टैसीटोरी ने भी राजस्थान में भाषा और संस्कृति पर बहुत सराहनीय काम किया है। वे रियासतकाल में  बीकानेर रहे। उन्होंने भी राजस्थानी भाषा और गुजरी जबान में निकट रिश्तो की बात कही थी।
संस्कृत भाषाओ की जननी है। शब्दों की बानगी देखिये संस्कृत में कर्म है। यही राजस्थानी ,गुजरी ,कांगड़ी ,पंजाबी और हिंदी में 'काम' हो जाता  है। संस्कृत में कर्ण है। इन सब भाषाओ में सुनंने के  मानव अंग को कान कहते है।संस्कृत में मस्त से मस्तिक बना। यानि ललाट। राजस्थानी और गुजरी में इसे माथो कहते है। पंजाबी और कांगड़ी में मथा है।संस्कृत में तप्त मतलब गर्म। गुजरी में तातो ,राजस्थानी में भी कमोबेश तातो या तातोज ,कांगड़ी और पंजाबी में ताता है।
संस्कृत में वस्ति है। गुजरी और राजस्थानी में बासनो है।
       भाषाओ ने इंसान की तरह अपना दिल और शामियाना कभी छोटा नहीं रखा।जब भी नए शब्द आये ,भाषा ने उसे गले लगाया और आत्मसात कर लिया।कौन यकीन करेगा अलमारी ,आलपिन और बाल्टी पुर्तगाल जबान  से आये और हिंदी के कुनबे का हिस्सा बन गए। शब्दों की यह यात्रा एक तरफा नहीं है। जयपुर के कर्नल पूर्ण  सिंह ने फ्रेंच भषा में  राजस्थानी से मिलते चार सो शब्द ढूंढ निकाले।
जब हम भी अपने दिल का दयार भाषा की तरह बड़ा कर लेंगे ,नफरत और परायेपन की दीवारे भरभार कर जमीन पर आ गिरेगी।
सादर  
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